अध्यात्म के विषय से आनंद दायक इस जगत में और कुछ नहीं है। अध्यात्म का क्षेत्र सागर की गहराई से भी अधिक व्यापक है। सागर, पृथ्वी और गृह आदि की सीमा है लेकिन अध्यात्म की कोई सीमा नहीं है। अध्यात्म के क्षेत्र का विस्तार सूर्य और चन्द्रमा से कही अधिक है।
क्यों आवश्यक है अध्यात्म को जानना?
मुक्ति केवल तभी संभव है जब हम अध्यात्म को जान लेंगे। यदि आप अध्यात्म के बारे में जानना चाहते हैं तो सबसे पहले यह समझ लें कि अध्यात्म कुछ पाने का विषय नहीं है, बल्कि स्वयं के अस्तित्व को समाप्त करने का नाम ही अध्यात्म है। अध्यात्म के मार्ग पर केवल उसी व्यक्ति को जाना चाहिए जो स्वयं को मिटाने के लिए तैयार है। आशा है आपने इस तथ्य पर विचार किया होगा। आइये अध्यात्म के कुछ प्रमुख नियमो को जानते हैं –
व्यक्ति विशेष से अध्यात्म का कोई सम्बन्ध नहीं
जिस भी व्यक्ति ने अध्यात्म को किसी व्यक्ति विशेष से सम्बंधित माना है इसका सीधा अर्थ यह निकलता है कि वह व्यक्ति अध्यात्म को नहीं जानता। जैसे सूर्य, चाँद, धरती, अग्नि आदि को मेरा कहा जाए तो वह न्याय युक्त नहीं होगा ठीक वैसे ही अध्यात्म को मेरा या आपका कहना गलत होगा। अध्यात्म में “मेरा” या “आपका” जैसे शब्दों का कोई स्थान नहीं है।
अध्यात्म का मार्ग नहीं है कठिन
ऐसा माना जाता है कि अध्यात्म को जानना बहुत ही कठिन है, परन्तु ऐसा सोचने से हम अपना मार्ग स्वयं ही कठिन बना लेते हैं। अगर कोई व्यक्ति कार चलाना सीखने से पहले ही यह सोच लेगा कि कार चलाना बहुत कठिन है तो वह व्यक्ति कार चलाना कभी सीख ही नहीं पाएगा।
सुख और दुःख से पार है अध्यात्म
जीवन का सरल सा नियम है कि जो भी व्यक्ति या वस्तु हमें जितना सुख देगी उतना ही वह दुःख भी देगी। जितना प्रकाश होगा, उतनी ही रात भी होगी। लेकिन अध्यात्म सुख और दुःख दोंनो को भी छोड़ने का नाम है।
अध्यात्म का नियम– बांटने से बढ़ता है धन
जगत में ऐसा लगता है कि जितना हम धन दूसरे को देंगे उतना कम होगा, लेकिन अध्यात्म को जानने वाले यह भली भांति जानते हैं कि जितना बांटा जाएगा, उतना बढ़ेगा। ऐसा अध्यात्म का नियम है कि जो भी वस्तु हम जितनी बांटेंगे वो उतनी और अधिक बढ़ती जाएगी।
*अध्यात्म के मार्ग से लौटना असंभव
“ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना ही समझ लीजे
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है“
अध्यात्म में जाने के बाद वहां से लौटने का कोई मार्ग नहीं है क्योकि अध्यात्म को जानने के बाद हमारे अंदर अपना कुछ भी बाकी नहीं रहेगा, केवल परमात्मा ही बाकी रहेगा। अध्यात्म को जानने के बाद आप स्वयं परमात्मा स्वरुप हो जाएंगे, परमात्मा और आप में कोई फ़र्क़ नहीं रहेगा। जब अँधेरा प्रकाश को जान लेगा तो वह स्वयं अँधेरा ना रह कर प्रकाश ही बन जाएगा। अगर आपको अध्यात्म को जानना है तो यह खतरा आपको उठा कर चलना होगा कि आप समाप्त हो सकते हैं, समाप्त होना ही मुक्ति है।
जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि है मैं नाहीं ।
प्रेम गली अति सांकरी जामें दो न समाहीं ॥
*अध्यात्म के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा–इच्छा
यदि आप अध्यात्म को जानना चाहते हैं तो आगे बढ़ने की इच्छा का आपको सबसे पहले त्याग करना होगा। इच्छा शब्द सांसारिक व्यवहार का विषय है लेकिन अध्यात्म में इच्छा का कोई स्थान नहीं है। क्योकि इच्छा शब्द का सम्बन्ध मन से है, इच्छा का अर्थ हुआ कि आप मन को परिपक्व करना चाहते हैं। यहाँ तक कि इच्छाओं से पार जाने की कामना भी अध्यात्म में बाधा है, अर्थ यह हुआ कि आपने यह समझना है कि मुझे बढ़ना नहीं है मुझे मिटना है।
उदाहरण के लिए एक लोटा यदि यह सोचे कि मैं अपने अंदर सागर को समाने की इच्छा रखता हूँ तो लोटे में कभी सागर नहीं आ सकता। जब लोटा सागर में जाएगा तो उस लोटे की इच्छा समाप्त हो जाएगी और लोटे का स्वयं का अस्तित्व बाकी नहीं रहेगा। लोटे का बाकी न रहना ही सागर में समाना है। यदि आप अध्यात्म को जानना चाहते हैं तो यह समझ लें कि आपकी जो इच्छा है उसका नामोनिशान मिट जाएगा।
जब हम कुछ कामना करते हैं या हम किसी चीज़ को पकड़ते हैं तो हम स्वयं भी बंध जाते हैं और हमारी मुक्तता समाप्त हो जाती है। जो व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को नियंत्रित करने या बाँधने की कामना रखता है, उसे परमात्मा भी सुख नहीं दे सकता क्योकि वह व्यक्ति स्वयं उस कामना में बंध गया है।
अध्यात्म को जानने का मार्ग केवल सतगुरु
जैसे अध्यात्म या परमात्मा एक है, वैसे ही अध्यात्म के बारे में ज्ञान देने वाला भी एक ही होता है। एक देश का एक प्रधान मंत्री होगा, एक राष्ट्रपति होगा उसी प्रकार अध्यात्म का ज्ञान देने वाला भी एक ही होता है। सतगुरु को अध्यात्म नामक ईमारत की नीव कहा जाए तो बिलकुल सही होगा। जैसी नीव होगी, वैसा ही आपका मकान बनेगा। सतगुरु के बिना अध्यात्म अर्थहीन है। सतगुरु कभी भी दो नहीं होते। स्वयं परमात्मा ही सतगुरु के रूप में अवतार लेते हैं।
सर्वप्रिय श्लोक देखें-
गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः। गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥
श्लोक का प्रचलित अर्थ-
इस श्लोक का अर्थ हम सभी यह पढ़ते या सुनते आये हैं कि हमारे शरीर धारी गुरु ही ब्रह्मा हैं, विष्णु हैं और महेश हैं । इसका अर्थ हम सभी यह समझते हैं कि जिस शरीर को हम अपना गुरु मान रहे हैं वे ही भगवान ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं। जबकि इस श्लोक का वास्तविक अर्थ यह है कि केवल भगवान ब्रह्मा, विष्णु और महेश ही हमारे वास्तविक गुरु हैं, इनके अलावा कोई और सतगुरु नहीं हैं।
विचार करने वाली बात यह है कि द्वापर में परमात्मा ने केवल एक ही कृष्ण रूप में अवतार लिया, उस समय एक से अधिक शरीर परमात्मा ने नहीं धारण किया, तो आज के युग में सभी शरीर धारी गुरु “सतगुरु” कैसे हो सकते हैं ? सतगुरु और गुरु दोनों शब्द अलग अर्थ रखते हैं। किसी विषय के बारे में ज्ञान देने वाला गुरु होता है जैसे गणित, हिंदी, विज्ञान पढ़ाने वाले मार्गदर्शक को उस विषय का गुरु कह सकते हैं। आज के युग में अध्यात्म के बारे में बात करने वाले अनेक गुरु विद्यमान है, गुरु आपको अध्यात्म के बारे में केवल जानकारी दे सकता है, लेकिन सतगुरु आपको अध्यात्म का प्रत्यक्ष बोध प्रदान करने का सामर्थ्य रखता है।
आप यह सोच रहे होंगे कि आखिर अध्यात्म को जानने के लिए हमें क्या करना होगा?
सबसे पहले हमें यह पहचानना होगा कि कौन से गुरु असली नारायण हैं ?
कैसे की जाए उद्धारकर्ता की खोज ? इसे समझने के लिए श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी में वर्णित एक कहानी पढ़ते हैं-
माखन शाह लुबाना एक सिक्ख जो दूर–दूर से बहुमूल्य वस्तुएँ लाता था। एक दिन जब वह सामान से भरे अपने जहाजों के साथ घर वापस जा रहा था, तो वह एक बहुत ही भयंकर तूफान में फंस गया। उसे बहुत डर लगा और उसने सोचा कि वह और उसका सामान डूब जाएगा। उन्होंने आठवें गुरु हर कृष्ण से उन्हें और उनके सामान को बचाने के लिए प्रार्थना की और धन्यवाद उपहार के रूप में 500 सोने के सिक्के देने का मन ही मन संकल्प किया। अचानक तूफान रुक गया और उसके जहाज सुरक्षित थे। माखन शाह गुरु हर कृष्ण के बहुत आभारी थे वह बकाला में अगले गुरु को खोजने गए लेकिन वहां कई लोग थे जो गुरु बनने का नाटक कर रहे थे। माखन शाह एक सच्चे गुरु या आध्यात्मिक गुरु की तलाश करना चाहते थे। माखन शाह ने सच्चे गुरु को खोजने के लिए एक विशेष परीक्षण किया।
उन्होंने गुरु होने का दावा करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को सोने की दो मोहरें देने का फैसला किया। यह सोचकर कि यदि कोई झूठ बोल रहा होगा तो वह खुशी–खुशी मोहर ले लेगा, जबकि सच्चा गुरु (हृदयों को जानने वाला) निश्चित रूप से वह मांगेगा जो वास्तव में वादा किया गया था। । उन्होंने गुरु होने का दावा करने वाले कई लोगों को सोने की दो मोहरें दीं, लेकिन उन्होंने केवल सोने की परवाह की और यह नहीं पूछा कि वह वास्तव में क्या चाहते हैं। माखन शाह को एहसास हुआ कि वे असली गुरु नहीं थे। अंत में, उन्होंने भाई तेघा (गुरु हर गोबिंद साहिब जी के पुत्र– श्री गुरु तेग़ बहादुर जी) के बारे में सुना, जो गुरु होने का दावा नहीं करते थे, लेकिन एक पवित्र व्यक्ति के रूप में जाने जाते थे। माखन शाह दो सोने के सिक्के देकर उनकी परीक्षा लेने गया। गुरु तेग बहादुर ने अपनी आँखें खोलीं और उनके पवित्र होठों से अमृत बह निकला, “माखन शाह, गुरु को आपके धन की आवश्यकता नहीं है, लेकिन 500 गिरवी रखकर, आप केवल दो ही क्यों चढ़ा रहे हैं“। माखन शाह ने उत्साहपूर्ण परमानंद में आवाज लगायी “गुरु लाधो रे, गुरु लाधो रे“(मुझे पवित्र गुरु मिल गया है)।
त्रेता युग में भी स्वयं भगवान श्री राम ने सभी ऋषियों के चरणों में नतमस्तक होकर प्रणाम किया और सतगुरु की खोज की। जो ऋषि मुनि सच में तत्त्व के ज्ञाता थे उन्होंने भगवान श्री राम को आशीर्वाद देने कि बजाय स्वयं उनके चरणों में प्रणाम किया।
आज के युग में उपलब्ध हज़ारो शरीरधारी गुरुओं में से सतगुरु की खोज के लिए आप जब जाएं तो सबसे पहले उनसे पूछे कि क्या आपने उस तत्त्व को जान लिया है जिसको जानने के बाद कुछ भी जानना शेष नहीं रहता? यदि हम अपूर्ण गुरु को धारण करते हैं तो हम अपनी आत्मा का हनन करते हैं और अध्यात्म से दूर चले जाते हैं l आप नीचे दिए गए लक्षणों से स्वयं विश्लेषण कर पाएंगे कि इस व्यक्ति के पास केवल अध्यात्म के बारे में जानकारी है या उसने सच में स्वयं के अनुभव से ज्ञान प्राप्त कर लिया है l
सतगुरु के व्यक्तित्व के कुछ लक्षण नीचे उल्लेखित किये गए हैं –
*जैसे सूर्य को मोमबत्ती की आवश्यकता नहीं होती, वैसे ही सतगुरु को अपनी सुरक्षा करने के लिए किसी सहायक व्यक्ति की आवश्यकता नहीं होती।
*वे किसी से भयभीत नहीं होते और ना ही किसी को भयभीत करते हैं –
“भै काहू कउ देत नहि नहि भै मानत आन“
*सतगुरु अपने में अकेले ही काफी होते हैं उन्हें अपने साथ चलने के लिए भीड़ की आवश्यकता नहीं होती।
*स्वयं नारायण की तरह सतगुरु भी 16 कला सम्पूर्ण होते हैं, वे कोई भी रूप धारण कर सकते हैं।
*सतगुरु कभी भी किसी को प्रभावित करने का प्रयास नहीं करते।
अध्यात्म के बारे में जानने के लिए एक या दो आँखों की नहीं बल्कि हज़ारो आँखों की चेतना चाहिए और एक दो कान नहीं बल्कि अनंत कानों का बोध चाहिए। हम कुछ भी करलें लेकिन अंत में हमें अध्यात्म के मार्ग पर आना ही होगा।
लाख पानी भाप बनकर आसमानो पर उड़े,
मुड़ उसे आना है आखिर बस समंदर के लिए।
ऐसे ही मानव कुछ भी करले, उसे मुड़ कर अध्यात्म के मार्ग पर ही आना होगा।अध्यात्म का विषय इतना गहरा है कि इस पर जितना भी लिखा या पढ़ा जाए वह कम ही है। हम लिखते लिखते और आप पढ़ते पढ़ते थक जाएंगे लेकिन अध्यात्म का विषय समाप्त नहीं होगा। अध्यात्म इतना विशाल है कि सारे ब्रह्माण्ड इसके अंदर हैं।
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