महाब्रह्मर्षि‘ यह पद कैसे निष्पन्न होता है, इसका शास्त्रों में उद्धृत प्रमाण के आलोक में चिंतन करते हैं-‘महाब्रह्मर्षि’ में तीन शब्द (पद) हैं-महा (महत्) + ब्रह्म+ ऋषि। इस पर प्रतिशब्द की शास्त्रीय व्याख्या करते हैं-
महा-‘मह्यते पूज्यते असौ इति-महान् ‘महपूजायां’ धातु से उणादि सूत्र ‘वर्त्तमाने पृष-महज्जच्शतृवच्च’ (उणा. 2/84) से अति निपातित होता है-शत् प्रत्यय के पश्चात्, नुम्, दीर्घ आदि होकर महान् (पु.) महत् (नपुं क्तिङ में सिद्ध होता है यह शब्द बृहत् का द्योतक है अर्थात् बृहत्वात् ब्रह्म उच्यते जो व्यापक है, वही महान अर्थात ब्रह्म है। और भी निघण्टुकार कहते हैं- ‘श्रुतेन श्रोत्रियो भवति तपसा विन्दते महत्’ अर्थात् वेदादि का श्रवण करने से श्रोत्रिय होता है तथा तप-साधना के द्वारा महत को प्राप्त करता है। ‘महा’ महती साधना-तपस्या का बोधक है।
ब्रह्म-‘बृहंति वर्धते-निरतिश। महत्व-लक्षण बुद्धिमान भवति’ ‘बृहि बृद्धौ’ धातु से – ‘ बृहे नोंऽच्च’ (उणा. 4/145) से ‘मनिन्’ प्रत्यय तथा नकार को अकार तथा रत्व होकर ब्रह्म सिद्ध होता है। ब्रह्म का अर्थ वेद भी होता है। ‘तस्मात् एतद् ब्रह्म-नामरूपमन्त्रञ्च जायत-अर्थात् यही ब्रह्म नाम-रूप तथा अन्न के रूप में आविर्भूत होता है। श्रीमद्भागवत में ‘ब्रह्म पद से’ तेने ब्रह्म हृदा। आदि कवये हृदा = मनसा मन से आदिकवि=ब्रह्मा जी के लिये वेद का विस्तार किया। वेदान्त मत में-वस्तु सच्चिदानन्दाद्वय ब्रह्म अर्थात् सत्-चित् तथा आनन्द रूप ही अद्वैत रूप से ब्रह्म है। ‘ब्रह्मैव नित्यं वस्तु तदन्यदखिलमनित्यम्’ अर्थात् ब्रह्म ही नित्यवस्तु है, अन्य जितने भी जागतिक पदार्थ हैं वे सभी अनित्य हैं। और भी ब्रह्म के विषय में कहा गया-‘ आकाशवत् सर्वगतश्च नित्यः। अजो नित्यः शाश्वतः ‘सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म, रातेर्दातुः परायणं यत्र नान्यत् पश्यति, नान्यत् श्रृणोति, नान्यत् विजानाति सभूमा यो वै भूमा तदमृतम्। अर्थात् ब्रह्म आकाश की तरह सर्व व्यापक है तथा नित्य है। अज, शाश्वत है, सत्य रूप ज्ञान स्वरूप, अनंत सत्तात्मक ब्रह्म है। जो उस ब्रह्म के अतिरिक्त न देखता है, न सुनता है तथा न जानकारी करने का प्रयास करता है, वह भी भूमा है। जो भूमा है उसी से मुक्ति है। इत्यादि श्रुतियों के अनुसार नित्य, शुद्ध, मुक्त परमात्मा ही है। शास्त्रों में कहा गया है- ‘आनन्दो ब्रह्म व्यजानात् आनन्दरूपममृतं पदं विभाति- ब्रह्म का स्वरूप आनंद है आनंद ही अमृत अर्थात् मुक्ति है।’ ‘यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह। यतो वा इमानि-भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति यत् प्रयन्त्यभिसंविशन्ति तत् विजिज्ञासस्व तद् ब्रह्मेति । अर्थात् जहां वाणी मन के साथ मौन हो जाती है। जिससे सभी भूतों की उत्पत्ति होती है जिससे स्थिति है तथा जिसमें प्रविष्ट होते हैं यही ब्रह्म है। भगवान शिव कहते हैं-देह आदि माया के सभी कार्यों को मरुमरीचिका समान असत् जानना चाहिए। जीवात्मा स्वरूपतः ब्रहा है। किंतु माया के प्रभाव से वह स्वयं को अलग मानता है। ज्ञानी माया के चपेट में नहीं आता है। उसे अपने स्वरूप का बोध होता है। ऐसा ब्रह्मविद् महापुरुष ब्रह्म स्वरूप होता है।
ऋषि-‘ऋषति प्राप्नोति सर्वान् मंत्रान् ज्ञानेन पश्यति संसारपारं वा इति। ‘ऋष प्राप्तौ’ धातु से ‘इगुपधात् कित’ (उणा. 41/19) इस उणादि सूत्र से इन्. होकर ऋषि शब्द सिद्ध होता है। जिसका अर्थ-मंत्रों को प्राप्त करे, अथवा ज्ञान व मंत्रों के द्वारा संसार से पार का दर्शन करने वाला ऋषि होता है। ‘अग्निः पूर्वभिः ऋषिभिरीड्यो नूतनैरुत स देवा एह वक्ष्यति’। (ऋग्वेद-1/1/2) वह परमात्मा पूर्व ऋषियों के द्वारा स्तुत्य है। ‘विद्याविदग्धमतयो रिषयः प्रसिद्धाः’ विद्या में निपुण बुद्धि वाले ऋषि प्रसिद्ध हैं और भी ‘ऋषयो मंत्रदृष्टार:’ ऋषि वही है जिसने मंत्रों का साक्षात्कार कर लिया है।
तात्पर्य है कि महा+ब्रह्म ऋषि वही है जो संपूर्ण विश्व में पूजित-सम्मानित है, जिसकी दृष्टि व्यापक है ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ संपूर्ण पृथ्वी और चराचर जगत को जो अपना परिवार मानता है तथा ब्रह्म के अतिरिक्त संसार का जो वास्तविक दर्शन कर लेता है अर्थात् ‘सीयराम मय सब जग जानी’ ब्रह्ममय जगत का दर्शन करने वाले। मंत्रों को प्राप्त अर्थात् साक्षात्कार करने वाले ही ऋषि हैं। अर्थात् सम्मानित-ब्रह्मविद्-मंत्रदृष्टा ही महाब्रह्मर्षि है।
काशी विद्वत परिषद के ऋषियों व महनीय विद्वानों ने आपकी जगत् प्रसिद्धि देश-विदेश में अनेक शीर्षस्थ राष्ट्रपति आदि से सम्मानित साधु समाज में अतिप्रतिष्ठित, जीवमात्र के सुख-दुख, मान-अपमान, लाभ-हानि, काम-क्रोध लोभ से ग्रस्त लोगों के कल्याण हेतु सदा तत्पर ऐसे पूज्य श्री सद्गुरुदेव जी को इस महान् पद से समलंकृत किया। ऐसे ‘महाब्रह्मर्षि’ को हम कोटि-कोटि वंदन करते हैं। ‘महाब्रह्मर्षि‘ महामंत्र है, महावाक्य है। ‘महाब्रह्मर्षि’ ही साक्षात ब्रह्म, परमात्मा, मां दुर्गा, भगवान शिव, भगवान श्रीराम व भगवान श्रीकृष्ण हैं। ब्रह्म का जाप करते-करते व्यक्ति ब्रह्म रूप हो जाता है। इसका प्रतिदिन पाठ, जाप, पूजन, मनन, मंथन, चिंतन करके शास्त्रों, वेदों, ग्रंथों से पार सभी ब्रह्ममय हो जाते हैं। जो कष्ट में हैं, दुखों में हैं, परेशान हैं, भगवान को पाना चाहते हैं, इसके जाप से वे मुक्त हो जाते हैं, ऐसा वेद में वर्णित है। ‘महाब्रह्मर्षि’ का जाप 7 हजार करोड़ मंत्रों में सबसे श्रेष्ठ है। इसके जानने के बाद कुछ भी जानना शेष नहीं रह जाता। इसे गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण भाव रखते हुए गुप्त रखना अति आवश्यक है।
डा. दिनेश कुमार गर्ग
कोषाध्यक्ष एवं राष्ट्रीय प्रवक्ता, काशी विद्वत परिषद, वाराणसी
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