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महारक्षक भगवान नरसिंह देव

विष्णु पुराण की कथा के अनुसार सतयुग में हिरण्यकश्यप और हिरणाक्ष नामक दो असुर सम्राट हुए थे जो भगवान विष्णु के कट्टर विरोधी थे। प्रहलाद हिरण्यकश्यप और माता कयाधु की चार संतानों में से एक थे। जब प्रहलाद अपनी मां कयाधु के पेट में था तब उसके चाचा हिरण्याक्ष का भगवान विष्णु ने वराहावतार धारण करके वध कर दिया था। इससे कुंठित होकर उसके पिता हिरण्यकश्यप भगवान ब्रह्मा की तपस्या करने चले गए थे। इसके बाद दैत्य नगरी में हिरण्यकश्यप को न पाकर देवताओं ने वहां पर आक्रमण कर दिया था। उन्होंने दैत्य नगरी पर अधिकार कर लिया। जब वे कयाधु को बंदी बना अपने साथ ले जाने लगे तब नारद मुनि ने उन्हें रोक दिया। नारद मुनि ने इंद्र से कहा कि तुम एक गर्भवती स्त्री पर अत्याचार नहीं कर सकते और वह भी तब कि जब उसके गर्भ में भगवान विष्णु का भक्त पल रहा हो।

इसके पश्चात नारद मुनि कयाधु को इंद्र के चंगुल से छुड़ाकर अपने आश्रम में ले आये तथा हिरण्यकश्यप की तपस्या पूर्ण होने तक अपने आश्रम में रखा। इस दौरान नारद मुनि कयाधु को हरी भजन व भगवान विष्णु की कथाओं का विस्तारपूर्वक वर्णन कर ज्ञान प्रदान करते रहे। 

नारद मुनि के इन वचनों का सकारात्मक प्रभाव कयाधु के गर्भ में पल रहे अजन्मे प्रहलाद पर भी पड़ रहा था। यही कारण था कि जब उसका जन्म हुआ तब वह विष्णु भक्त बना। इसी बीच हिरण्यकश्यप की तपस्या समाप्त हो गयी तथा भगवान ब्रह्मा से उसने तीनों लोकों में सर्वशक्तिशाली होने का वरदान प्राप्त कर लिया। इसके बाद वह पुनः अपनी दैत्य नगरी वापस आ गया और वहां देवताओं का अधिकार हुए देखा। इसके बाद उसने अपने मिले वरदान से न केवल दैत्य नगरी को वापस पाया अपितु तीनों लोकों पर अधिकार स्थापित कर लिया और इंद्र देव को स्वर्ग के आसन से अपदस्थ कर दिया। हिरण्यकश्यप की तपस्या समाप्त हो जाने और पुनः अपनी नगरी लौट आने की सूचना मिलने के पश्चात कयाधु और भक्त प्रहलाद भी नारद मुनि से आशीर्वाद लेकर पुनः अपनी नगरी लौट गए।

हिरण्यकश्यप भगवान ब्रह्मा से मिले वरदान के फलस्वरूप अति शक्तिशाली हो चुका था। इसी अहंकार में उसने विष्णु को भगवान मानने से इंकार कर दिया और स्वयं को भगवान की उपाधि दे दी। तीनों लोकों में जो कोई भी विष्णु की पूजा करता, वह उसे मरवा डालता किंतु जब उसने अपने स्वयं के पुत्र को ही विष्णु भक्ति में लीन देखा तो क्रोध की अग्नि में जलने लगा।

हिरण्यकश्यप ने अपने पुत्र प्रहलाद को समझाने के लिए आश्रम में नियुक्त आचार्यों को आदेश दिया कि इसे विष्णु भक्ति से विमुख करें। आचार्यगण पूरी कोशिश करते थे लेकिन इसका असर भक्त प्रहलाद पर नहीं होता था। वह खुद भी भगवान विष्णु की आराधना करता था और अपने सहपाठियों को भी इसके लिए प्रेरित करता था। कई तरह से उसे धमकाया और डराया गया, प्यार से भी समझाया गया लेकिन बालक प्रहलाद पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।

उसने अपने पांच वर्ष के छोटे से पुत्र प्रहलाद को मारने की कई बार चेष्ठा की लेकिन हर प्रयास असफल सिद्ध हुआ। उसने प्रहलाद को पागल हाथियों के सामने फिंकवा दिया ताकि वह उनके पैरों के नीचे कुचलके मारा जाये। सांपों से भरे कुएं में फिंकवा दिया। पर्वत की चोटी से नीचे खाई में फेंक दिया। बेड़ियां बांधकर समुद्र में फिंकवाया। अस्त्र-शस्त्र से मरवाने की कोशिश की, लेकिन भगवान विष्णु की कृपा से उसका बाल भी बांका नहीं हुआ।

हिरण्यकश्यप की बहन होलिका को वरदान था कि वह अग्नि में नहीं जल सकती। उसने अपनी बहन होलिका को बुलाकर आग्रह किया कि वह प्रहलाद को लेकर अग्नि में प्रवेश कर जाए, इससे वह जलकर भस्म हो जाएगा। योजना के अनुसार होलिका भक्त प्रहलाद को लेकर अग्नि में प्रवेश कर गई । भक्त प्रहलाद तनिक भी नहीं डरा और भगवान विष्णु के मंत्र का जाप करता रहा। इसके फलस्वरूप होलिका जलकर भस्म हो गई और वह सुरक्षित बाहर निकल आया। तभी से भारतवर्ष में होलिका दहन किया जाता है। यह असत्य की पराजय का प्रतीक है। होलिका दहन के माध्यम से नकारात्मक शक्तियों का विनाश किया जाता है। अग्नि में जलवाने की कोशिश नाकाम हो जाने पर हिरण्यकश्यप के क्रोध का पारावार नहीं रहा। वह इस बात से भी बहुत कुपित था कि हर बार भगवान विष्णु की कृपा से प्रहलाद के प्राणों की रक्षा हो जाती थी।

अंत में हिरण्यकश्यप ने एक और प्रयास किया। उसने एक धधकते हुए खंभे पर प्रहलाद को लिपटने की आज्ञा दी। उसने कहा कि तेरा भगवान विष्णु तुझे आकर बचा सकता है तो बचा ले। भक्त प्रहलाद इस आपदा के समय में भगवान विष्णु का स्तवन करने लगा और सहायता के लिए प्रार्थना करने लगा। उसने जब खंभे की तरफ देखा तो वह हैरान रह गया क्योंकि उस पर चींटियां चल रही थीं। भक्त प्रहलाद ने प्रसन्न होकर भगवान विष्णु को मन ही मन धन्यवाद किया और उस खंभे से लिपट गया जो बिल्कुल ठंडा था। हिरण्यकश्यप ने जब देखा कि इस धधकते हुए खंभे पर लिपटने से प्रहलाद का कुछ नहीं बिगड़ा तो वह और भी क्रोधित हो गया। उसने तलवार निकाली और प्रहलाद की तरफ लपका। जैसे ही उसने प्रहलाद का वध करना चाहा वैसे ही वहां पर खंभे को फाड़कर भगवान विष्णु नरसिंह अवतार धारण कर प्रकट हो गए। उनका शरीर तो मनुष्य का था लेकिन मुख शेर का था। उनकी उंगलियां शेर के पंजे की तरह थीं। उनकी लाल आंखें क्रोध से धधक रही थीं। उनकी दहाड़ सुनकर हिरण्यकश्यप के हाथ से तलवार छूट गई। भगवान ने हिरण्यकश्यप को ललकारा। भक्त प्रहलाद ने भगवान विष्णु को पहचान लिया और वह उनका वंदन करने लगा।

हिरण्यकश्यप ने कहा कि मुझे कोई नहीं मार सकता। मुझे भगवान ब्रह्मा ने वरदान दिया है कि मेरी मृत्यु किसी भी अस्त्र-शस्त्र से नहीं हो सकती। मुझे कोई भी, न धरती पर और न आसमान में, न भीतर और न बाहर, न सुबह और न रात में, न देवता और असुर, न वानर और न मानव मार सकता है। भगवान नरसिंह ने कहा कि देख! मैं तुझे मिले हुए वरदान की मर्यादा को बिना भंग किए ही तेरा वध करता हूं। यह कहकर भगवान उसे लपककर बांहों में उठाकर अपने पैरों पर लिटा लिया। भगवान नरसिंह उस समय महल की दहलीज पर थे। भगवान नरसिंह ने उसे कहा कि देख, न तू बाहर है, न भीतर है अर्थात दहलीज पर है। न तू आसमान में है, न पृथ्वी पर है अर्थात मेरे पैरों पर लेटा हुआ है। न मैं नर हूं और न पशु हूं, मैं तेरा वध करूंगा। इसके लिए किसी अस्त्र-शस्त्र का उपयोग भी नहीं करूंगा। इतना कहकर भगवान नरसिंह ने अपने पैरों पर लिटाए हुए हिरण्यकश्यप का पेट अपने नाखूनों से फाड़ दिया और वह मृत्यु को प्राप्त हो गया। इस असुर के संहार के बाद सभी भगवान नरसिंह की जय जयकार करने लगे। 

विष्णुपुराण और शिवमहापुराण के साथ साथ लिंगपुराण में भी वर्णित है कि हिरण्यकश्प के वध के पश्चात नरसिंह का क्रोध शान्त करने में प्रहलाद भी विफल हो गए थे। उन्हें शांत करने के लिए देवताओं ने भगवान शंकर से गुहार लगाई। देवों की प्रार्थना पर महादेव ने पहले अपने गण वीरभद्र को उन्हें शांत करने भेजा। लेकिन वीरभद्र विफल हो गए। ब्रह्मा जी के अनुरोध पर भगवान शिव ने शेर, मनुष्य और शरभ नामक पक्षी (एक जंगली पक्षी जो शेर से भी अधिक बलवान था और जिसके आठ पैर थे) का मिश्रित रूप लिया और इसी रूप में वे भगवान नरसिंह के सामने पहुंचे। नरसिंह रूपी भगवान विष्णु को शांत करने के लिए शरभ रूपी भगवान शिव ने पहले विष्णु स्तुति की। लेकिन नरसिंह रूपी विष्णु जी का क्रोध शांत नहीं हुआ। इसके बाद शरभ रूपी भगवान शिव ने नरसिंह रूपी भगवान विष्णु को अपनी पूंछ में बांधा और खींचकर पाताल लोक ले गए। उन्होंने शरभेश्वर की पकड़ से छूटने का बड़ा प्रयास किया लेकिन वे छूट ही नहीं पाए। इसके बाद नरसिंह रूपी भगवान विष्णु ने शिव स्तुति की और वापस अपने मूल विष्णु स्वरूप में आ गए। अपने अवतार को त्यागकर भगवान नरसिंह ने भगवान शिव से प्रार्थना की कि वे उनकी चर्म को अपने आसन के रूप में स्वीकार करें। तब शरभेश्वर भगवान ने कहा कि मेरा अवतरण नरसिंह देव का कोप शांत करने के लिए हुआ था। मूलतः नरसिंह और शरभेश्वर एक ही हैं। इन दोनों को अलग नहीं किया जा सकता। भगवान नरसिंह रूपी भगवान विष्णु का तेज भगवान शिव में समाहित हो गया और भगवान नरसिंह की चर्म को भगवान शिव ने अपने आसन के रूप में ग्रहण कर लिया। इस तरह भगवान नरसिंह की दिव्य लीला का समापन हुआ।

स्तंभ जिसमें से प्रकट हुए थे भगवान नरसिंह

लोक मान्यता है कि जिस खंभे से भगवान विष्णु जी नरसिंह अवतार लेकर प्रकट हुए थे वह टूटा हुआ खंभा अब भी मौजूद है। बिहार के पूर्णिया जिले के बनमनखी प्रखंड के सिकलीगढ़ में वह स्थान मौजूद है जहां असुर हिरण कश्यप का वध हुआ था। इसे माणिक्य स्तंभ कहते हैं। कहा जाता है कि इस स्तंभ को कई बार तोड़ने का प्रयास किया गया लेकिन वह टूटा नहीं। इस खंभे से कुछ दूर पर ही हिरण नामक नदी बहती है। कहते हैं कि नरसिंह स्थान के क्षेत्र में पत्थर डालने से वह पत्थर हिरण नदी में पहुंच जाता है। इस स्थान का जिक्र भागवत पुराण के सप्तम अष्टम अध्याय में मिलता है।

इस स्थल की विशेषता है कि यहां राख और मिट्टी से होली खेली जाती है। कहते हैं कि जब होलिका जल गई और भक्त प्रहलाद चिता से सकुशल वापस निकल आए तब लोगों ने राख और मिट्टी एक दूसरे पर लगा लगा कर खुशियां मनाई थी। यहीं पर एक विशाल मंदिर है जिसे भीमेश्वर महादेव का मंदिर कहते हैं। यहां पर हिरण कश्यप ने घोर तप किया था। जनश्रुति के अनुसार हिरणकश्यप का भाई हिरण्याक्ष यहां का राजा था यह क्षेत्र अब नेपाल में पड़ता है।

भारत में भगवान नरसिंह देव के मंदिर

  • खरकड़ा, खेतड़ी, राजस्थान में भगवान नरसिंह का मंदिर है सतयुग कालीन माना जाता है। कहते है कि यहां पर भृगु ऋषि ने तपस्या की थी। जब विष्णु जी ने नरसिंह अवतार लेकर हिरण्यकश्यप का वध किया था तब भृगु ऋषि ने भगवान विष्णु को याद किया और तब भगवान नरसिंह जी ने उन्हें दर्शन दिए और यहां पर अपने नाखूनों से एक का बनाया और अपने शरीर साफ किया और यही पर अंतर्ध्यान हुए। यहां पर नरसिंह चतुर्दशी को भक्तों का तांता लगा रहता है। इस मंदिर को औरंगजेब ने नष्ट कर दिया था बाद में इसका फिर से जीर्णोद्धार हुआ है।
  • उदामाण्डी, झुंझुनूं, राजस्थान में भगवान नरसिंह का बना हुआ है जिसका निर्माण 1331 में हुआ था। यह बहुत ही विशाल और भव्य मंदिर है।
  • अति प्राचीन मथुरा पुरी में भगवान नरसिंह का मंदिर मानिक चौक में स्थित है यहां भगवान नरसिंह और वाराह की घाटी है जहां नरसिंह चौदस को भगवान नरसिंह का उत्सव मनाया जाता है तथा लीला भी की जाती है।
  • नदिया जिला पश्चिम बंगाल के मायापुर इस्कॉन में भगवान नरसिंह देव का मन्दिर है।
  • बीकानेर में लखाटियों के चौक में वर्षों पुराना नरसिंह देव के समेत पूरे शहर में कुल चार नरसिंह मंदिर हैं।
  • उत्तराखंड राज्य के ग्राम असवाल कोटुली, जिला अल्मोड़ा, तहसील-भिक्यासैन में भी एक नृसिंह का प्राचीन मंदिर है।
  • मध्य प्रदेश के हाटपिप्लिया में भमोरी नदी है जहां भगवान नरसिंह की 7.5 किलो वजन की पाषाण प्रतिमा है जो नदी के बहाव के विपरीत तैरती है। इस प्रतिमा को वर्ष में 3 बार तैराया जाता है, जिसके पीछे यह मान्यता है कि इससे वर्ष भर खुशहाली रहती है।

मई 2023

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One Comment

  • Shankarlal August 21, 2023

    Namo narayan

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