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भगवान श्री राम व माता सीता का जीवन चरित्र

समय चक्र यदि उल्टी गति से चलने लगे तो हम कलयुग से निकलकर द्वापर से गुजरते हुए उस त्रेता युग में पहुंच जाएंगे जो भगवान श्रीरामचन्द्र जी व माता सीता जी के उद्दात जीवन चरित्रों का साक्षी है। वे सभी घटनाएं चलचित्र की तरह आंखों में दृश्यमान हो जाएंगी जो आज के युग के मानव के लिए अकल्पनीय व अविश्वसनीय हैं। लेकिन ये सब उतनी ही सत्य हैं जैसे आसमान में सूर्य। भगवान श्रीरामचन्द्र जी व माता सीता जी जैसे पात्र त्रेता युग में ही अवतरित हुए हैं किसी अन्य युग में नहीं। हम यदि गहनता से इन चरित्रों का पुनरावलोकन करेंगे तो ऐसा प्रतीत होगा कि जैसे ये किसी दिव्य लोक से पृथ्वी पर अवतरित वे दिव्य आत्माएं हैं जो मानवता को जीवन आदर्शों का संदेश देकर पुन: अपने लोकों में वापस चली गईं।

सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी,

जो पितु मातु बचन अनुरागी ।

भगवान श्रीराम जी के राज्याभिषेक की तैयारियां जोर-शोर से हो रही हैं। पूरी अयोध्या सहित राजदरबार व महलों को अति सुन्दरता से सजाया गया है। माता कौशल्या, माता कैकेई व माता सुमित्रा बहुत ही प्रसन्न हैं। प्रजा में हर्ष की लहर प्रसारित हो रही है। घर-घर खुशियां मनाई जा रही हैं। सभी प्रसन्न हैं लेकिन एक स्त्री ऐसी भी है जो परम दुखी है। उसके मन में घोर विषाद है। वह स्त्री इस राजकुल में बहुत ही महत्व रखती है क्योंकि वह महारानी कैकेई की मुख्य दासी है। इसे कैकेयराज ने महारानी कैकेई के साथ दहेज के रूप में ही महाराज दशरथ को सौंपा था। इस दासी का मुख्य कार्य है कि वह समय आने पर महारानी कैकेई को यह याद दिला दे कि महाराज दशरथ ने उन्हें दो वरदान धरोहर प्रदान किए हैं। मंथरा को यह बिल्कुल भी नहीं सुहा रहा है कि श्री भरत लाल की जगह श्रीरामचन्द्र जी को राजतिलक हो । रात्रि का प्रथम प्रहर प्रारंभ हो चुका है और मंथरा ने अपने शब्द जाल से महारानी कैकेई को यह समझा दिया है कि आप की भलाई इसी में है कि राजा श्री भरतलाल हों। साथ में तरीका भी बता दिया है कि किस प्रकार आज की रात बीतने से पहले ही महाराज दशरथ से दो वरदान मांगने हैं ताकि भगवान श्रीरामचन्द्र जी राजा बनने की बजाय वनों को चले जाएं और श्री भरतलाल जी को राजपद मिल जाए। इसी घटनाक्रम में महारानी कैकेई कोपभवन में चली गई। महराज दशरथ को जब ज्ञात हुआ तब वे वहां पहुंचे। उन्होंने महारानी कैकेई को मनाने का भरसक प्रयास किया क्योंकि वे उन्हें अत्यंत प्रेम करते हैं। महारानी कैकेई ने उन्हें राम की सौगंध से बांधकर दो वर जो धरोहर हैं, वे मांग लिए। पहले वर में श्री भरतलाल को राज्य और दूसरे वर में भगवान श्रीरामचन्द्र जी को चौदह वर्ष का वनवास। महाराज दशरथ ने जब ये सुना तब वे मूर्छित हो गए। मूर्छा जाने के बाद महारानी कैकेई को समझाया लेकिन वह नहीं मानीं और अपनी बात पर अड़ी रही। अंततः त्रिया चरित्र ने रंग दिखाया और महाराज दशरथ ने ये दोनों वरदान उन्हें दे दिए। इसके पश्चात महाराज दशरथ को गहन आघात के कारण मूर्छा आ गई। भगवान श्रीरामचन्द्र जी को ज्ञात हुआ तब वे वहां आए और सारा घटनाक्रम जानने के बाद माता कैकेई से कहा-‘हे माता, सुनो! वही पुत्र बड़भागी है जो पिता-माता के वचनों का पालन करने वाला है। माता-पिता को संतुष्ट करने वाला पुत्र हे जननी, सारे संसार में दुर्लभ है। वन में विशेष रूप से मुनियों का मिलाप होगा जिससे मेरा सभी प्रकार से कल्याण है। उसमें भी पिता जी की आज्ञा और आपकी सम्मति है। मेरे प्राणप्रिय भरत राज्य पाएंगे, इन सभी बातों को देखकर यह प्रतीत होता है कि आज विधाता सब प्रकार से मेरे अनुकूल है।

जो भगवान श्रीरामचन्द्र जी अगले दिन राज्यपद पाने वाले हैं, रात्रि भी बीती और उन्हें वनवास की आज्ञा मिल गई। दृश्य इस प्रकार पलट गया जिसकी कल्पना आज का मानव कर ही नहीं सकता। यदि ऐसा आज किसी युवक के साथ हो जाए तो वह अपने माता-पिता के विरुद्ध होकर क्या कुछ नहीं कर सकता? लेकिन भगवान श्रीरामचन्द्र जी ने कितनी सहजता से इस वनवास को स्वीकार कर लिया। आज्ञाकारी पुत्र की तरह उन्होंने पिता के हर वचनों का मान रखा। इस संसार में ऐसा आज्ञाकारी विरले ही देखने को मिलता है जो पिता के कहने मात्र से राजपाट छोड़कर वन के लिए निकल जाता हो। राम को आदर्श मानने वाले विद्वानजन भी अपने पिता की आज्ञा के लिए इस प्रकार का त्याग नहीं कर सकते। ऐसा दुर्लभ उदाहरण कहीं देखने को नहीं मिलता कि कोई पुत्र पिता के कहने पर अपना राजसी वैभव तुरंत त्यागकर जंगल में भटकने को चला जाए। किन्तु राम के व्यक्तित्व की सबसे दुर्लभ विशेषता यही है कि वे एक आदर्श पुत्र की तरह अपने पिता की आज्ञा का पालन करते हैं और हर प्रकार के असहनीय दुखों को भोगने को तत्पर दिखाई देते हैं। यौवन की अवस्था में 14 वर्ष का लंबा वनवास भोगना किसी के लिए भी संभव नहीं है किंतु भगवान राम बिना संकोच के वन को चल पड़ते हैं। माता-पिता के आज्ञाकारी होने का ऐसा उदाहरण न कभी भूतकाल में था और न ही वर्तमान है। तथा भविष्य में भी नहीं होगा।

प्रथम राम भेंटी कैकेई, सरल सुभायं भगति मति भेई

माता कैकेई जो भगवान श्रीरामचन्द्र जी को माता कौशल्या से भी अधिक प्रेम करती हैं, दुर्बुद्धी मंथरा दासी के बहकाने से अपना मार्ग भूल गईं। यही माता समय बीत जाने पर अपने पुत्र श्री भरतलाल जी द्वारा प्रताड़ित करने पर पश्चाताप की अग्नि में जलने लगीं। जब सारा परिवार भगवान श्रीरामचन्द्र जी को वापिस अयोध्या लौटाने के लिए श्री भरतलाल जी सहित गया तब उनके साथ माता कैकेई भी हैं। श्री लखन लाल जी ने जब उन्हें देखा तो उन्हें क्रोध आया और उन्होंने माता कैकेई की अवहेलना की लेकिन भगवान श्रीरामचन्द्र जी ने सबसे पहले माता कैकेई के चरण स्पर्श किए और आशीर्वाद लिया। भगवान श्रीरामचन्द्र जी के मन में उनके लिए कोई दुर्भावना का विचार ही नहीं है।। इसके पश्चात जब भगवान श्रीरामचन्द्र जी वनवास काटकर अयोध्या में लौटे तो सर्वप्रथम वे माता कैकेई के ही चरण स्पर्श करते हैं। जबकि श्री भरतलाल जी माता कैकेई की अवहेलना और आक्रोशित व्यवहार उसी प्रकार कर रहे हैं। भगवान श्रीरामचन्द्र जी ने श्री भरतलाल जी को यथोचित समझाया और माता और पुत्र का पुनः मिलन भी करवाया।

परम आदर्श गुरुभक्त व साधु संतों के रक्षक

भगवान श्री रामचन्द्र जी बाल्यावस्था से ही गुरुओं के सान्निध्य में रहे और उनकी सेवा करके प्रसन्न करते हुए अनेकों विद्याओं के ज्ञाता बने। सर्वप्रथम गुरु वशिष्ठ जी के आश्रम में रहकर विद्या अध्ययन किया तदोपरान्त गुरु विश्वामित्र जी के साथ भयंकर वनों में चले गए। उनकी इतनी अल्पायु थी कि महाराज दशरथ ने गुरु विश्वामित्र जी को उन्हें सौंपने के लिए इंकार कर दिया लेकिन गुरु वशिष्ठ के समझाने पर वे मान गए। वनों में भयंकर राक्षसों का संहार किया और अत्यंत भयंकर राक्षसी ताड़का के आतंक से साधुओं को मुक्त किया। छोटी सी आयु में ही इतना बड़ा कार्य करने के बाद उनके मन में तनिक भी दंभ या कर्ताभाव नहीं आया। गुरु विश्वामित्र जी के आश्रम में अपने भ्राता श्री लक्ष्मण जी के साथ रहते हुए गुरु सेवा का कार्य मनोयोग से करते रहे। उनकी गुरु भक्ति को देखते हुए गुरु विश्वामित्र जी ने उन्हें ‘बला’ व ‘अबला’ नाम की दो विद्याएं प्रदान की जिनका प्रयोग वनवास काल में उन्होंने बखूबी किया। इन विद्या की शक्तियों के फलस्वरूप उन्हें न तो थकान ही होती और न ही निद्रा आती। श्री लक्ष्मण जी भी निरंतर रूप से वनवास काल में जागृत अवस्था में इन्हीं विद्याओं के बल पर भगवान श्री रामचन्द्र जी व माता सीता जी की सेवा में खड़े रहे।

वनवास काल में पूरे तेरह वर्षों तक भगवान श्री रामचन्द्र जी साधु संतों व गुरुओं की सेवा व असुरों से रक्षा करते रहे। उन्होंने संपूर्ण उत्तर भारत के इन वनों को दक्षिण दिशा में बसे हुए राक्षसों के आतंक से मुक्त बना दिया। इनकी सेवा से प्रसन्न होकर सभी साधु-संतों ने नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र प्रदान किए जो रावण से युद्ध करने में सहायक हुए।

आदर्श भ्रात नहि राम सरीखा

भगवान श्री रामचन्द्र जी के साथ श्री लक्ष्मण जी चौदह वर्ष वनवास में रहे। इस दौरान जब भी कोई भाई की समानता का विषय आया तब भगवान श्री रामचन्द्र जी ने श्री भरत लाल जी का ही नाम लिया जबकि इनके स्थान पर कोई और होता तो इनसे बैरभाव रखता। भगवान श्री रामचन्द्र जी के मन में श्री भरत लाल जी के प्रति इतना प्रेम है कि जब माता सीता ने भगवान श्री रामचन्द्र जी को कहा कि मुझे ऐसा स्वप्न आया है कि श्री भरत लाल जी समाज सहित हमसे मिलने के लिए आए हैं। यह ही भगवान श्री रामचन्द्र जी के नेत्रों में जल भर आया लेकिन लक्ष्मण जी को बहुत क्रोध आया और उन्होंने भरत लाल जी के लिए अपशब्द कहे। तब भगवान श्री रामचन्द्र जी ने उन्हें समझाते हुए कहा- ‘हे लक्ष्मण सुनो, भरत सरीखा पुरुष ब्रह्मा की सृष्टि में न तो कहीं सुना गया है, न देखा ही गया है। ब्रह्मा, विष्णु और महादेव का पद पाकर भी भरत को राज्य का मद नहीं होगा। भरत जैसा भाई इस संसार में हो ही नहीं सकता। कोई उनके गुण, शील और स्वभाव की बराबरी नहीं कर सकता।’ जब हनुमान जी प्रथम बार भगवान श्री रामचन्द्र जी से मिले तब उन्होंने कहा कि तुम मुझे भरत के समान ही प्रिय हो तथा इसी प्रकार उन्होंने विभीषण को भी कहा कि तुम मुझे भरत के समान प्रिय हो। इसी प्रकार उन्होंने सुग्रीव को भी श्री भरतलाल जी के समान प्रिय बताया। निषादराज गुह्य को भी भगवान श्री रामचन्द्र जी ने श्री भरतलाल जी की ही उपमा प्रदान की।

परम आदर्श सखा भगवान श्री रामचन्द्र जी

भगवान श्री रामचन्द्र जी ने निषादराज गुह्य, वानरराज सुग्रीव और विभीषण को अपना सखा बनाया तथा मित्रता को प्राणपण से निभाया। वानरराज सुग्रीव तथा विभीषण को राज्य प्रदान किया तथा निषादराज को भी अपना वरदहस्त तथा कृपा प्रदान की। भगवान श्री रामचन्द्र जी की कथा में इन तथ्यों को विस्तारपूर्वक वर्णित किया गया है।

भगवान श्री रामचन्द्र जी आजीवन अपने पत्नी के प्रति समर्पित रहे और एकपत्नीव्रत धारण किया। वे एक आदर्श पति रहे लेकिन साथ ही वे एक आदर्श राजा भी हैं। इसी कारण उन्हें अपनी पत्नी का त्याग करना पड़ा। आजकल कोई भी शासक इस प्रकार से आदर्श विचारधारा का नहीं है कि वो अपनी प्रजा द्वारा उंगली उठाने पर अपनी पत्नी का त्याग कर दे। यहां तो यह स्थिति है कि तमाम विरोधों के बावजूद भी शासक सत्ता का त्याग नहीं करते हैं।

शत्रु का भी मान करने वाले भगवान श्री रामचन्द्र जी

प्रसंग राम-रावण युद्ध का है। भगवान श्री रामचन्द्र जी अपनी विजय के लिए यज्ञ कर रहे हैं और पुरोहित आचार्य के रूप में उनके शत्रु राक्षसराज रावण आसीन हैं। ऐसा उदाहरण न पहले कभी देखा गया और न ही देखा जा सकता है कि कोई अपने शत्रु को अपनी विजय के लिए होने वाले यज्ञ में आचार्य पद प्रदान करे। इतना ही नहीं उन्होंने यजमान के रूप में अपने शत्रु रावण की चरणवंदना की तथा दक्षिणा भी दी। इसके फलस्वरूप रावण ने भगवान श्री रामचन्द्र जी को आशीर्वाद दिया- ‘विजयी भव।’ भगवान श्री रामचन्द्र जी ने रावण का सम्मान उनके पांडित्य को दिया। जो अपने शत्रु का भी सम्मान करे उस जैसा चरित्र केवल मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री रामचन्द्र जी का ही हो सकता है।

परम अनुकरणीय हैं जगद्जननी माता सीता का जीवन चरित्र

माता सीता का परम वंदनीय जीवन चरित्र आज के युग में प्रत्येक स्त्री के लिए परम अनुकरणीय है। मात्र 6 वर्ष की अल्प आयु में ही इनका विवाह हो गया और बालवधू बन कर ये अयोध्या के महलों में आ गई। यहां रहकर इन्होंने अपनी तीनों सासु माताओं की पूरी तन्मयता से सेवा की और गृहस्थ के सभी पहलुओं की शिक्षा ग्रहण की। यहां पर 12 वर्षों तक एक वधू के रूप में रहकर कुशल गृहणी व पत्नी की भूमिका निभाई। जब ये युवावस्था में आते ही इन्हें वनवास का दंश झेलना पड़ा।

वनों में जाते समय महाराज दशरथ ने इन्हें रोकने का प्रयास किया, माता कौशल्या ने भी बहुत समझाया लेकिन इन्होंने कहा कि मैं अपने पति के बिना यहां नहीं रहूंगी। जब भगवान श्रीरामचन्द्र जी ने इन्हें कहा कि तुम यहां अयोध्या में रहकर माताओं और पिताश्री की सेवा करना और जब-जब इन्हें मेरी याद आए तब-तब इन्हें ढांढस बंधाना, लेकिन ये नहीं मानी। भगवान ने यह भी कहा कि वनों में बड़े-बड़े राक्षसों व जंगली जानवरों के भय हैं तब इन्होंने कहा कि जब आप मेरे साथ हैं तो मुझे भय काहे का। अंततः ये सारे सुखों को छोड़कर अपने पति के साथ वनों के लिए चल पड़ी। जब सुख का समय था तब इन्होंने वनों के संकटों का सामना करते हुए कुशल गृहणी, पत्नी व मात समान भाभी की तरह 13 वर्ष गुजारे। इसके बाद इन्हें रावण हरण करके लंका में ले गया और इन्हें अशोक वाटिका नामक वन में बंधक बनाकर रख लिया।

यहां अशोक वृक्ष के नीचे एक ही स्थान पर बैठकर इन्होंने एक वर्ष बिता दिया। यहां पर इन्हें रावण ने अनेकों प्रकार के प्रलोभन दिए कि मैं तुम्हें लंका की पटरानी बना दूंगा, तुम मुझसे विवाह करके अनंत सुखों की स्वामिनी बन जाओ लेकिन उन्होंने उसके इस कुत्सित प्रस्ताव को भर्त्सना करते हुए ठुकरा दिया। ये चाहतीं तो आज की स्त्री की तरह अपने पति को छोड़कर भौतिक सुखों को अपना लेतीं। लेकिन इन्होंने एक पतिव्रता नारी की तरह आचरण करते हुए वहां समय बिताया। वहां माता सीता ने हनुमान जी को कहा-

दीन दयाल बिरदु संभारी। हरहु नाथ मम संकट भारी॥

भगवान श्रीरामचन्द्र जी तो दया के सागर हैं फिर मेरे संकट को हरण क्यों नहीं कर रहे। यदि वे वनवास का समय बीतने से पहले यहां नहीं आए तो मैं अपने प्राण त्याग दूंगी।

राम-रावण युद्ध में भगवान श्रीरामचन्द्र जी विजयी हुए। इसके बाद माता सीता को सादर लेकर विभीषण आया। भगवान श्रीरामचन्द्र जी ने उन्हें कि तुम अग्नि परीक्षा दो तब ही मैं तुम्हें स्वीकार करूंगा। एक पतिव्रता नारी के लिए ऐसा कहा गया लेकिन उन्होंने निसंकोच अग्नि परीक्षा दी। भगवान अग्निदेव ने उनकी पवित्रता की साक्षी दी।

इसके बाद माता सीता केवल एक वर्ष तक ही अपने पति के साथ रहीं और फिर वनवास के लिए वनों में चली गईं। लेकिन फिर भी उनके मन में अपने पति के प्रति कोई विषाद या क्रोध नहीं था। महर्षि आश्रम में रहकर उन्होंने लव-कुश को जन्म दिया। उनका लालन-पालन किया। लेकिन उन्होंने भगवान श्रीरामचन्द्र जी के विषय में कटु वचनों का प्रयोग कभी नहीं किया। यदि वे चाहतीं तो अपने पुत्रों को अपने पति के प्रति भड़का सकती थीं। उन्होंने माता व पिता दोनों के कर्तव्यों का पालन करते हुए उनका लालन-पालन किया। पहले 14 वर्ष वनवास झेली और उसके बाद 12-13 वर्ष का पुनः वनवास काटा। कितना संघर्षमय जीवन माता सीता का रहा होगा यह कल्पनातीत है। इसके बाद जब पिता-पुत्र युद्ध में आमने-सामने हुए तब उन्होंने अपने पुत्रों को उनके पिता भगवान श्रीरामचन्द्र जी का परिचय देते हुए भूसमाधि ले ली। यदि वे चाहतीं तो अपने पति साथ अयोध्या में वापसी करके अपने दोनों पुत्रों सहित सुखमय जीवन बिता सकती थीं। ऐसी आदर्श नारी को बारंबार वंदन है। 

भगवान राम और मां सीता का आदर्श जीवन समस्त जनमानस के लिए आज भी प्रेरणा का स्रोत है। सीता-राम का पूरा जीवन आदर्शों, मर्यादाओं और संघर्षों का पर्याय है। दोनों का विराट व्यक्तित्व ऐसा है जो युगों-युगों तक वंदित होता रहेगा। भगवान राम और सीता केवल त्रेता युग ही नहीं अपितु हर युग के लिए पूजनीय और वंदनीय हैं। ऐसा कोई आदर्श है जो इन दोनों के व्यक्तित्व में दिखाई न देता हो। राम के नाम पर रामराज्य की संकल्पना आज भी की जाती है। राजकीय धर्म की स्थापना केवल रामराज्य से संभव है क्योंकि रामराज्य में जन का कल्याण निहित है। यही कारण है कि सभी रामराज्य की स्थापना करना चाहते हैं। विश्व का कल्याण इसी में है कि हर स्त्री सीता बन जाए और पुरुष राम आदर्श अपनाए।

-प्रभु कृपा पत्रिका, अप्रैल 2022

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