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परमात्मा को कैसे पाएं ?

गुरुदास : परम पूज्य गुरुदेव, यह जिज्ञासा है कि किस प्रकार से परमात्मा की प्राप्ति की जाये ? गुरुदेव कृपा करें।

परम् पूज्य गुरुदेव : यह प्रश्न इस जगत् में सबसे श्रेष्ठ प्रश्न है। आजकल चाहे बच्चे हों, जवान हों या बूढ़े हों, सभी काम, धन, यश, वैभव के पीछे भाग रहे हैं। इस जगत् में ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है जिसकी कोई कामना नहीं होती है। जब भी कोई मानव परमात्मा की प्राप्ति का साधन पूछता है तो इसका अर्थ है कि उस व्यक्ति ने पूरी तरह से जगत् को देख लिया है, समझ लिया है क्योंकि अति श्रेष्ठ आदमी ही परमात्मा की प्राप्ति करने के साधन को तलाशता है, कामना करता है।

हमारे भगवान् महावीर, बुद्ध, सद्गुरु नानक, कबीर, रविदास, मीरा आदि ने इस संसार को नश्वर समझा, नाशवान् समझा। तत्पश्चात् उन्होंने वैसी साधना की, जिसके फलस्वरूप उन सभी को परमात्मा का सान्निध्य प्राप्त हुआ। अन्यथा इस जगत् में कोई भी मानव परमात्मा की प्राप्ति की कामना नहीं करता है। जब अर्जुन ने भगवान् श्रीकृष्ण से पूछा कि प्रभु परमात्मा को कैसे पाया जा सकता है? तब भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि अगर मानव परमात्मा को प्राप्त करना चाहता है तो उसे सर्व प्रथम ऐसे सत्गुरू (संत) के पास जाना होगा जिन्होंने परमात्मा को जाना है।

ऐसे तत्ववेत्ता संत से परमात्मा के संबंध में पूछे। जैसे अष्टावक्र ऋषि ने राजा जनक को कुछ ही क्षणों में परमात्मा की जानकारी दे दी थी। भगवान् श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध के मैदान में किस तरह अर्जुन को विराट रूप दिखाकर परमात्मा के दर्शन करा दिये। अर्थात् जो तत्ववेत्ता संत परमात्मा के बारे में जानते हैं, सर्वप्रथम उन्हें गुरु मानकर उनसे इस विषय का सार पूछें। सद्गुरु के संपर्क में आने पर संबंधित मानव परमात्मा को एक दिन अवश्य जान जाता है।

गुरुदास : परम पूज्य गुरुदेव, एक व्यक्ति ने जिज्ञासा की है कि क्या मुझमें गुण हैं या मैंने ऐसे पुण्य कर्म किए हैं कि मैं प्रभु को प्राप्त कर सकूं?

परम पूज्य गुरुदेव : जब-जब हमें ऐसा ध्यान आएगा कि हमारे में कुछ ऐसे गुण हैं या सद्कर्म है कि प्रभु प्राप्ति हो जाए तो प्रभु प्राप्ति में अवरोध उत्पन्न होगा। अपने पुण्य कर्मों का अहंकार जागृत होगा तो इस प्रकार की विचारधारा नहीं रहनी चाहिए अच्छे कर्म सोने की बेड़ी (हथकड़ी) है एवं बुरे कर्म लोहे की बेड़ी है। लेकिन बन्धन दोनों में हैं। जब हममें पूर्ण समर्पण भाव पैदा होता है कि एक-एक श्वास प्रभु का है। हम तो कठपुतली की भांति असमर्थ है तो व्यक्ति को प्रज्ञाबोध होता है और जब-जब आप स्वयं को इस बात का विश्वास दिलाते रहेंगे कि आपमें प्रभु पाने की सामर्थ्य है तो आपको अहंकार का अंश छूने लगता है एवं आप प्रभु कृपा, उसकी दिव्यता से दूर होते चले जाते हैं। लेकिन समर्पण भाव से वैराग्य की भावना का समावेश होता है। ‘किस विधि तुमको ध्याऊं मैं कुमति में मूरख खल कामी, तुम पालनकर्ता।’ हम रोज आरती में पढ़ते हैं। लेकिन जब हम अपने आचार-व्यवहार में भी ऐसी भावना लाते हैं तो प्रभु स्वयमेव प्रकट हो जाते हैं। जैसी तीव्र भावना हम दुनियावी सुखों की प्राप्ति के लिए करते हैं, वही तड़प, व्याकुलता प्रभु के लिये भी हो तो चमत्कार हो जाता। है। जब वह प्रयत्न छोड़ देता है, साधना, ध्यान छोड़ देता है तो वास्तविक तलाश शुरू होती है। ऐसी तलाश में जब व्यक्ति स्वयं खो जाता है, डूब जाता है, घूंघट के पट खोल देता है तो प्रभु सामने आ जाते हैं। नारियल को तोड़े बिना आप उसकी गिरी का फल नहीं पा सकते। ऐसे ही अपने अहम् को भी बाहरी आडम्बरों को हम चूर-चूर कर दे तो परमात्मा तो बैठा ही है हमारे समीप ।

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