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ग्रह दोषों का रोगों से संबंध

नवग्रहों का मानवजीवन पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। मानव जीवन इन नवग्रहों की दशा व ग्रहदोष के दुष्प्रभाव के कारण रोगों से ग्रस्त हो जाता है। शिशु के गर्भ से बाहर आने से ही इन ग्रहों की भूमिका शुरू हो जाती है। जिस क्षण शिशु जन्म लेता है उस क्षण जिस ग्रह की रश्मियां उस स्थान पर उपस्थित होती हैं, उसका शरीर उसे आत्मसात् कर लेता है। उस समय मुहूर्त में जिस ग्रह की जैसी उपस्थिति होती है, उसी के अनुरूप ही उसकी कुंडली निर्धारित होती है तथा उसी के आधार पर उसके भावी जीवन का भविष्य व जीवन का संचालन निर्धारित होता है। अर्थात् ग्रहदशाओं व दोषों का प्रभाव जातक के जीवन पर उम्रभर होता है। जिस ग्रह का स्वामित्व जातक की कुंडली में होता है, उसी के गुणों व अवगुणों के कारण ही सुख-दुख, रोग, कष्ट, उन्नति आदि की प्राप्ति होती है। ग्रह-दोषों के कारण विभिन्न प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं।

सूर्य: सूर्य तमोगुणी ग्रह है। इसका कुप्रभाव मनुष्य के मस्तिष्क अर्थात् मानसिक रोग तो प्रदान करता है साथ ही शारीरिक विकृतियां भी देता है। मनुष्य के दिमाग सहित शरीर का दायां भाग दुष्प्रभावित हो जाता है। यह सिरदर्द, ज्वर, महाज्वर, नेत्र विकार का कारक है। व्यक्ति अपना विवेक खो देता है। शरीर में अकड़न आ जाती है। मुंह में हमेशा थूक बनता रहता है। व्यक्ति को हृदय रोग हो जाता है तथा धड़कन कम या ज्यादा होती रहती है। मुंह और दांतों में रोग हो जाता है। बेहोशी का विकार भी मनुष्य में आ जाता है।

चन्द्र : यह जल तत्व प्रधान सतोगुणी ग्रह है जो मनुष्य के रक्त परिभ्रमण को विशेष रूप से प्रभावित करता है। इसके कुप्रभाव से जल, कफ, कृशता, उदर रोग तथा विशेष रूप से स्त्री रोग उत्पन्न हो जाते हैं जैसे मासिकधर्म का गड़बड़ा जाना, स्मृति का कमजोर हो जाना। मिर्गी का रोग हो जाता है। मानसिक रोगों में पागलपन की स्थिति भी बन जाती है। फेफड़े संबंधी रोग हो जाते हैं और बेहोशी की व्याधि लग जाती है। मनुष्य के शरीर का बायां हिस्सा जिस तरफ दिल होता है, कुप्रभावित होता है और हृदय रोग हो जाता है। मानसिक तनाव बना रहता है। इससे मन में घबराहट बनी रहती है। मन में तरह-तरह की शंकाएं व कुविचार आते रहते हैं। विशेषत: आत्महत्या का विचार आता-जाता रहता है। जातक सर्दी-जुकाम से हमेशा ही पीड़ित रहता है।

मंगल : यह तमोगुणी ग्रह है और इसका विशेष अधिकार क्षेत्र मनुष्य का सिर है। यह अग्नि तत्व प्रधान ग्रह है। इसके कुप्रभाव से रक्त संबंधी रोग जैसे रक्तअल्पता या अशुद्धि, उच्च रक्तचाप हो जाते हैं। नेत्र, अंधता व वातरोग जैसे-पित्त, वायु,गुर्दे में पथरी का प्रकोप हो जाता है। कर्णरोग, त्वचा रोग जैसे-खुजली, फोड़े-फुंसी, जख्म, चोट आदि से जातक पीड़ित रहता है। बार-बार पेशाब आना, शरीर में कंपन होना भी इसके कुप्रभाव जनित रोग हैं। गठिया रोग भी इसी की देन है। स्त्री जातकों में प्रजनन में अत्यधिक पीड़ा होती है या शिशु जन्म लेते ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं।

बुध : वैसे तो यह सात्विक गुण वाला ग्रह है तथा इसका अधिकार क्षेत्र मनुष्य की गर्दन व कंधा है। इसके शुभ प्रभाव से मनुष्य को व्यापार व लेनदेन के कार्यों में निपुणता प्राप्त होती है तथा भाग्यवर्धन होता है लेकिन इसके कुप्रभाव के फलस्वरूप मनुष्य की संभोग शक्ति का ह्रास होता है। खांसी, तुतलाहट का विकार आ जाता है और सूंघने की शक्ति क्षीण हो जाती है। समय पूर्व ही दांत खराब होकर टूट जाते हैं। इस ग्रह का कुप्रभाव हृदय रोग, कुष्ठ रोग व आंत संबंधी रोग भी उत्पन्न करता है।

गुरु (बृहस्पति ) : यह रजोगुणी ग्रह है। इसका अधिकार क्षेत्र मनुष्य का मूत्राशय है। इसके कुप्रभाव से मूत्राशय के रोग तथा फोड़ा-फुंसी हो जाते हैं। कुंडली में गुरु-शनि, गुरु-राहु और गुरु-बुध की युति से श्वास रोग, वायु-विकार, फेफड़ों में दर्द, अस्थमा, दमा, श्वास रोग, गर्दन, नाक व सिर में दर्द रहता है। इसके अतिरिक्त पेचिश, पेट फूलना, कब्ज, रक्त विकार, हड्डियों में दर्द तथा जिगर का रोग भी हो जाता है।

शुक्र : यह तमोगुणी ग्रह है तथा इसके दुष्प्रभाव से प्रमेह, मेदवृद्धि, कर्णरोग के अतिरिक्त मुख्य रूप से वीर्य विकार हो जाता है जिससे वीर्य की कमी हो जाती है । यौनरोग उत्पन्न हो जाते हैं तथा कामेच्छा समाप्त हो जाती है। नपुंसकता व इन्द्रिय रोगों से मनुष्य ग्रस्त हो जाता है। त्वचा संबंधी रोग हो जाते हैं। आंतों के रोग के साथ-साथ गुर्दे का रोग भी हो जाता है। जातक के पांवों में तकलीफ होती है तथा अंगूठे में दर्द बना रहता है। ऐसा हो तो यह समझ लेना चाहिए कि शुक्र की दशा है। कई बार तो इसके कुप्रभाव के फलस्वरूप जातक का अंगूठा बिना रोग के ही बेकार हो जाता है।

शनि : यह तमोगुणी ग्रह है। हमारी पौराणिक कथाओं में इस ग्रह के कुप्रभाव के विषय में विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है कि इसकी दशा से कोई भी नहीं बच पाया है। इसके कुप्रभाव के फलस्वरूप मनुष्य उन्माद से ग्रस्त रहता है। कनपटी की नसों में दर्द रहता है तथा सिर की नसों में तनाव बना रहता है। चिन्ता व घबराहट तो जीवनचक्र का हिस्सा ही बन जाते हैं। समय से पूर्व आंखें कमजोर हो जाती हैं तथा भवों के झड़ जाते हैं। सिर के बाल भी झड़ने लगते हैं। फेफड़ों में सिकुड़न आने लगती है और सांस लेने में तकलीफ होती है। रक्त-अल्पता के रोग के साथ-साथ रक्त में बदबू आने लगती है। उदर रोग हो जाता है तथा पेट फूलने की समस्या विकराल रूप से सामने आ जाती है।

राहु : यह तमोगुणी व क्रूर ग्रह है। इसका जातक के पैरों पर अधिकार रहता है। इसके दुष्प्रभाव के कारण इससे मनुष्य में मस्तिष्क विकार, अनिद्रा, मानसिक तनाव, पागलपन, जैसे रोग उत्पन्न हो जाते हैं। मस्तिष्क में पीड़ा व दर्द बना रहता है। नाखून अपने आप टूटने लगते हैं। इस ग्रह की दशा के कुप्रभाव से कोई भी ऐसा रोग हो जाता है जो मनुष्य की मृत्यु का कारण भी बन सकता है।

केतु : राहु की तरह यह ग्रह भी तमोगुणी व क्रूर है। इसके कुप्रभाव से मनुष्य को अशुभ भावनाएं, भयानक स्वप्न, दुर्घटना, जलाघात, चर्मरोग, कर्णरोग, बहरापन, रीढ़ की हड्डी व घुटनों में दर्द जैसे रोग घेर लेते हैं। इसके अतिरिक्त मूत्र रोग, सिर के बाल झड़ना तथा शरीर की नसों में कमजोरी जैसे विकार भी आ जाते हैं। लिंग में विकार आ जाता है तथा संतानोत्पत्ति में रुकावट आ जाती है। इसके कुप्रभाव से जोड़ों की समस्या हो जाती है।

नवग्रह व विज्ञान

आधुनिक विज्ञान ने भी इस तथ्य को माना है कि इन नवग्रहों का प्रकाश पृथ्वी पर पहुंचता है। वे इस बात से सहमत हैं कि इनकी गति व पृथ्वी तक पहुंचने का समय भी भिन्न है। विज्ञान ने इन ग्रहों के रासायनिक विश्लेषण को भी सहमति प्रदान की है। विज्ञान इस अवधारणा से भी सहमत है कि यह असीम ब्रह्मांड अनेकों सूर्यों, ग्रहों व तारों को सहेजे हुए है। विज्ञान अन्य ग्रहों पर जीवन होने की संभावनाओं पर भी खोज कर रहा है।

चन्द्रमा के प्रभाव के कारण समुद्र में उठने वाले ज्वार-भाटा का अध्ययन करके विज्ञान ने इस तथ्य को और भी पुख्ता कर दिया है कि ग्रहों का प्रभाव हमारी पृथ्वी के जीवन पर पड़ता है। चन्द्रमा शुक्ल पक्ष में पूर्णिमा के रोज जब अपनी पूर्ण आकृति से प्रकट होता है तब समुद्र का पानी पूरे वेग से ऊपर की ओर उछाल मारता है। समुद्र का पानी पूरे उन्मादी वेग से चन्द्रमा की ओर ऊपर उठता है और इस प्रक्रिया को ज्वार-भाटा कहते हैं। चन्द्रमा को हमारे मनीषियों ने जल तत्व प्रधान कहा है अतः यह मनुष्य के शरीर में उपस्थित जल को प्रभावित करता है। 

अमेरिका में एक शोध के आधार पर वैज्ञानिकों ने स्वीकार किया है कि पूर्णिमा के आसपास अर्थात् शुक्ल पक्ष में पागलों का मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है और वे अधिक उत्पाती हो जाते हैं और वे नियंत्रण से बाहर भी हो जाते हैं जबकि अन्य दिनों में वे सामान्य रहते हैं। ब्रिटेन पुलिस ने एक आकलन किया जिसमें पिछले 50 वर्षों का आधार बनाया गया कि पूर्णिमा के आसपास अपराधी तत्व नियंत्रण से बाहर हो जाते हैं। ये कामोत्तेजक होकर बलात्कार जैसे निन्दक, अपराधों को अंजाम देते हैं। चूंकि चन्द्रमा और सूर्य हमारे निकट हैं अतः ये परिणाम प्रत्यक्ष रूप से सहज ही प्राप्त हो जाते हैं लेकिन जो अन्य ग्रह हमसे दूर हैं और उनका प्रकाश दृष्टिगोचर नहीं होता अतः उसे आम मनुष्य जान नहीं सकता। अतः इसके लिए ज्योतिष शास्त्र द्वारा अध्ययन करने की आवश्यकता होती है। इसके द्वारा ही जान सकते हैं कि कौन से ग्रह की क्या स्थिति है। इसी के अनुसार ही जातक को इसके शुभ व दुष्परिणाम प्राप्त होते हैं तथा लाभ-हानि, रोग व स्वास्थ्य प्राप्त होते हैं।

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