संगीत का और मंत्रों का गहरा संबंध है। जब इस सृष्टि की रचना का प्रारंभ हुआ तो उस समय एक भीषण शब्द उत्पन्न हुआ, वह था – ‘ॐ’ । इसी से सारी सृष्टि बनी है। आकाश ही शब्द का आधार है। संगीत में रागों का बहुत महत्व है। हमारे ऋषि-मुनि वेदों की ऋचाओं को रागों में ही गाया करते थे। राग का परा व अपरा दोनों से ही सम्बन्ध है क्योंकि राग के गायन को सुनने या गाने के परिणाम स्वरूप मनुष्य अपरा से परा में चला जाता है और परा का अर्थ है-‘परमात्मा’। नाद से ब्रह्म तक पहुंचा जा सकता है। मंत्रों का सृजन शब्दों से ही होता है और सभी मंत्रों में सर्वोपरि शब्द है-‘ॐ’ । श्रीगुरुग्रंथ साहिब जी में ‘एक ओंकार’ की महिमा है। भगवान शिव को नटराज कहा जाता है-नृत्य के देवता। मां सरस्वती वीणावादिनी हैं तो भगवान श्रीकृष्ण को भी नटवर नागर कहा जाता है। इनकी बांसुरी सभी का मन मोह लेती थी। हमारी सृष्टि में संगीत, कला, चित्रकारी का बहुत महत्व है। हमारी ऋषि-मुनि ध्रुपद घमाज में वेदों की ऋचाओं का सस्वर पाठ किया करते थे। स्वामी हरिदास जी जो तानसेन के गुरु थे, वे वृंदावन में भगवान के लिए ही रागों में गायन करते थे। उन्हें उसी दौरान समाधि लग जाती थी और वे ब्रह्म तक पहुंच जाते थे। नाद से ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है अतः इसे ब्रह्मनाद कहा जाता है। वृंदावन के वनों में दूर-दूर तक बनी झोंपड़ियों व आश्रमों में भी कई संत-महात्मा रागों के गायन के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण व मां राधा की स्तुति करते हुए मिल जाएंगे। समय के अनुसार वे रागों का गायन करते हैं और मस्त रहते हैं। वहां अपूर्व शांति होती है। मेरा जब भी मन होता है, वहां चला जाता हूं और उन्हें सुनता हूं। वहां से वापिस आने का मन ही नहीं करता है। कलकल बहती नदी के किनारे बैठकर जब रागों का गायन होता है तो वहां का वातावरण विशेष प्रकार की आभा और ताजगी से भर जाता है। महलों में रागों का गायन गुणीजन करते थे। इन्हें राजा-महाराजा सुनते थे। कई गवैये वहां नियुक्त होते थे जो प्रथम प्रहर से लेकर आठ प्रहर तक समयानुसार रागों का गायन करते थे लेकिन अब वो परंपराए नहीं रहीं और न ही महल रहे। यह शास्त्रीय गायन अब कुछ ही लोगों के पास धरोहर के रूप में बचा हुआ है। (बोधगया समागम)
-प्रभु कृपा पत्रिका, जनवरी, 2019
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