प्राचीन काल में एक धनवान व्यक्ति एक ब्रह्मवेत्ता संत के आश्रम में पहुंचा और उनके चरणों में प्रणाम करके आश्रम में स्थान देने की विनती की। साथ ही उसने यह भी – अभिलाषा प्रकट की कि वह ब्रह्मज्ञान प्राप्त करना चाहता है। संत जी को उस पर दया आ गई और उसे आश्रम में रहने की आज्ञा प्रदान कर दी। वह उस आश्रम में रहकर सेवा करता और अपने भोजन की व्यवस्था अपने धन से ही करता था। इस प्रकार सेवा करते हुए कई वर्ष बीत गए और उसका धन समाप्त हो गया। संत जी उसकी सेवा से प्रसन्न थे। उसे परेशान देखकर उन्होंने पास बुलाकर पूछा कि तुम भोजन कहां करते हो। उसने जो सच था वह बता दिया। संत जी ने लंगर की व्यवस्था करने वाले सेवादारों को आदेश दिया कि यह भी आज से लंगर से ही भोजन प्राप्त करेगा। उन सेवादारों को उस व्यक्ति से ईर्ष्या थी क्योंकि संत जी उसे प्रेम करते थे। पहले तो उन्होंने उसे कच्चे आटे की रोटियां खाने को दी और फिर कड़ी सेवा का कार्य भी बताने लगे। वह जैसे-तैसे अपना पेट भरता और दूर जंगल से लंगर के लिए लकड़ियां काटकर लाता था। इस दौरान वह जंगली कंदमूल फल से भी अपना पेट भर लेता था। उन्होंने देखा कि इसे तो कोई असर नहीं हुआ तब उन्होंने उसे अधिक नमक डालकर रोटियां देनी शुरू कर दी। वह व्यक्ति रोटियों को भिगोकर रख देता था और जब उसका नमक निकल जाता तब उन्हें खा कर भूख मिटा लेता था। सेवादारों ने उसे और भी दूर से लकड़ियां लाने की सेवा प्रदान की। लेकिन वह प्रसन्नता से यह कार्य करता रहा। सेवादारों ने रोटियों में बाल मिली हुई रोटियां देनी शुरू कर दी। वह व्यक्ति रोटियों को सुखाकर बालों को निकाल कर खाने लगा। लगातार कड़ी मेहनत और ठीक प्रकार से भोजन नहीं मिलने के कारण वह कमजोर हो गया। लेकिन उसकी सेवा भावना में कोई कमी नहीं आई। इस प्रकार सेवा करते हुए कई वर्ष बीत गए और वह बहुत ही दुर्बल भी हो गया। वह जिस मकसद से आया था वह भी पूरा हुआ। एक दिन जब वह लकड़ियों का गट्ठर सिर पर रखकर आश्रम की तरफ आ रहा था तब जोर से आंधी चलने लगी। इसके फलस्वरूप वह लड़खड़ा कर गड्ढे में गिर गया। गड्ढे में गिरते ही उसके मुंह से निकला कि अभी तो सद्गुरु से कृपा भी प्राप्त नहीं हुई है और यह शरीर गिर भी गया। तभी उसे अपने शरीर में शक्ति का संचार महसूस हुआ और वह प्रयास करने से गड्ढे से बाहर आ गया। जब वह आश्रम में पहुंचा तो देखा कि संत जी संगत व शिष्यों के साथ विराजमान हैं। उन्होंने उसे बड़े प्रेम से अपने चरणों में बिठाया और कहा कि तुमने क्या कहा था कि सद्गुरु की कृपा प्राप्त नहीं हुई और यह शरीर गिर गया। संत जी ने उसके सिर पर अपना हाथ रख दिया। सिर पर हाथ रखते ही उस व्यक्ति को ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति हो गई। सद्गुरु ने उसे निःस्वार्थ व सच्ची सेवा का फल प्रदान कर कृतार्थ कर दिया।
श्री गुरु साहिब रामदास जी की सेवा
सद्गुरु की आज्ञापालन व निस्वार्थ सेवा के कारण एक साधारण मनुष्य भी उच्च पद तक पहुंच सकता है। ऐसा ही एक ज्वलंत उदाहरण है जो आज भी अनुकरणीय है- यह कथा पंजाब के गांव बासरके के जेठा नाम के एक किशोर
की है। दानी स्वभाव का जेठा उबले हुए चने बेचकर गुजर बसर करता था। पिता हरिदासजी और माता दयाकौर जी के घर चूनामंडी लाहौर (पाकिस्तान) में जन्मा जेठा सात वर्ष की उम्र में ही अनाथ हो जाने के कारण नाना के गरीब घर में रहता था। जेठा बचपन से ही धार्मिक विचारधारा वाला और साधु-संतों की सेवा करने वाला था।
गुरु अमरदास जी की महिमा सुनकर यह किशोर जेठा गुरु साहिब के दर्शनों के लिए गोइंदवाल साहिब पहुंच गया। यहां आकर गुरु के चरणों में ऐसी लगन लगी कि यहीं का होकर रह गया। गुरुजी व गुरुजी की संगत की प्यार से सेवा करते और अपने गुजारे के लिए घुघनियां भाव बेचते, यह किशोर व्यस्क हो गया। सब इन्हें श्रद्धा से जेठा जी कहकर पुकारने लगे। एक दिन गुरु माता मनसा देवी जी ने गुरु अमरदास जी से कहा कि हमारी बेटी बीबी मानी के लिए यदि जेठा जैसा कोई वर मिल जाए तो कितना अच्छा हो। भोले स्वभाव के गुरु साहिब अमरदास जी बोले कि इस जैसा तो परमात्मा ने इसी को बनाया है।
इस प्रकार जेठा जी का विवाह बीबी मानी जी के साथ हो गया। गुरु अमरदास जी ने इन्हें अपने बड़े जंवाई श्री रामा जी की तरह ही अपने घर में रख लिया। इनके सेवा भाव को देखकर ‘रामदास’ के नाम से विभूषित कर दिया।
एक बार गुरु साहिब ने श्री रामदास जी व श्री रामा जी को बड़ा थड़ा (चबूतरा) बनाने का हुक्म फरमाया। श्री रामदास जी व श्री रामा जी कुछ सेवकों के साथ बड़ा थड़ा बनाने की सेवा में लग गए। जब थड़ा बनकर तैयार हो गया तो गुरुजी बोले यह तो ठीक नहीं बना है, इसे गिराकर दोबारा बनाओ। श्री रामदास जी व श्री रामा जी ने इस थड़े को गिराकर दोबारा बना दिया। अगले दिन गुरु साहिब ने उसे देखकर कहा कि यह ठीक नहीं बना, इसे गिराकर फिर बनाओ ये इसे गिराकर बनाने में लग गए। इस प्रकार अनेक बार बना हुआ थड़ा गिरवाकर बनवाया गया, लेकिन गुरुजी संतुष्ट नहीं हुए। यह सिलसिला 5-6 दिन तक चला। इस प्रकार के व्यवहार से श्री रामा जी व अन्य सेवकों ने सेवा से हाथ खींच लिया। श्री रामा जी ने तो यहां तक कह दिया कि गुरु साहिब काफी बुजुर्ग हो गए हैं अतः सोचने-समझने की शक्ति भी क्षीण हो गई है लेकिन श्री रामदासजी सेवा में लगे रहे। जब उनसे पूछा गया तो नम्रता से उत्तर दिया कि इसमें गुरु साहिब की मेहर है कि मुझ मंदबुद्धि को बार-बार थड़ा बनाने के बारे में नए सिरे से समझाते हैं, लेकिन मुझसे ही भूल हो जाती है। गुरुजी की खुशी में ही मेरी खुशी है। इतना कहकर वे फिर अकेले ही प्राणपण से थड़ा बनाने की सेवा में लग गए।
गुरु साहिब अमरदास जी ने जब श्री रामदास जी से पूछा कि सब तो सेवा छोड़कर चले गए लेकिन आप क्यों लगे हुए हो? श्री रामदास जी हाथ जोड़कर विनीत स्वर में कहा कि हे सच्चे पातशाह, सेवक का धर्म है कि वह स्वामी की आज्ञा और मौज को शिरोधार्य प्राणपण से पालन करे। आप चाहे थड़ा बनवाएं चाहे गिरवाएं मेरे लिए दोनों कार्य ही सेवा है।
श्री रामदास जी गुरु की आज्ञा पालन, नम्रता व सेवाभाव से प्रसन्न हो गए। गुरु साहिब श्री अमरदास जी ने इन्हें गुरु गद्दी पर बैठाया और बाबा बुड्ढा जी ने तिलक लगाया। ये सिखपंथ की चौथे पातशाह तरन तारन सोढ़ी सुलतान बन गए।
सेवा कार्य करने वाले के मन में कभी यह भाव नहीं आना चाहिए कि मैंने यह सेवा की है। सेवादार के मन में अहम् भाव कभी नहीं आना चाहिए कि मैंने यह सेवा की है। जब विनीत भाव से सेवा की जाती है तब ही सद्गुरु प्रसन्न होते हैं और प्रभु कृपा प्रदान करते हैं अन्यथा वह कृपा पात्र नहीं बन सकता। धन, पद, वैभव, कीर्ति, यश, प्रतिष्ठा के भाव को मन में रखकर यदि सेवा की जाए तो सद्गुरु उस शिष्य को दीक्षा भी नहीं देता ऐसी ही कथा इस भाव को प्रकाशित करती है।
सेवा से शिष्य समंत का हृदय परिवर्तन
विशाल वटवृक्ष की घनी छाया में गुरुवर अपने शिष्यों को उपदेश देकर विश्राम कर रहे थे कि तभी एक सामन्त ने आकर उन्हें प्रणाम किया। गुरुवर ने उस पर एक दृष्टि डाली और शिष्टाचारवश उसे बैठने का संकेत किया। सामंत ने विनीत स्वर में गुरुवर को संबोधित करते हुए ‘गुरुवर मैं आपकी शरण में आया हूं, मैं आपसे दीक्षा ग्रहण करना चाहता हूं, कृपया आप मुझे अपने आश्रम में स्थान प्रदान करें’। गुरुदेव ने मंद मुस्कान से उसकी ओर देखते हुए कहा, ‘हे सामन्तवर, तुम इतने सुख, वैभव, ऐश्वर्य व धन-संपदा के स्वामी होकर भला दीक्षा ग्रहण क्यों करना चाहते हो? सामन्त ने पुनः विनय की, ‘गुरुदेव मैं अध्यात्म का ज्ञान लेना चाहता हूं, अलौकिक तत्वों को जानना चाहता हूं, इसके लिए मैं कुछ भी कर सकता हूं, आप आज्ञा दें’। गुरुदेव ने किंचित नेत्र बंद किए और उससे पूछा, “क्या तुम अपनी रियासत, धन-संपदा, नौकर-चाकर, परिवार आदि सबको त्याग सकते हो? उसने तुरंत कहा, क्यों नहीं गुरुदेव, में सब कुछ त्याग सकता हूं’। गुरुदेव ने कहा कि जब तुम सब कुछ त्याग दोगे तब मैं तुम्हें दीक्षा प्रदान करूंगा। उस सामंत ने अपनी रियासत, परिवार, धन-संपदा व परिवार आदि को त्याग दिया और कुछ दिन पश्चात वह गुरुदेव के आश्रम में आया। उसने दंडवत प्रणाम किया। गुरुदेव उस समय ध्यानावस्था में थे, उनके नेत्र बंद थे।
गुरुदेव के होठ हिले और शब्द निकला, ‘कौन’? सामंत ने कहा, मैं गुरुदेव’। गुरुदेव ने उसी अवस्था में कहा, ‘अरे तुम तो सब कुछ साथ ही ले आए हो’। उसने पुनः प्रार्थना की, ‘गुरुदेव मैं अपना सब कुछ त्याग करके आपकी शरण में आया हूं’। गुरुदेव ने कहा कि अभी तो तुम्हें बहुत कुछ त्याग करना है, जब तक मैं यह न जान लूं, तुम्हें दीक्षा नहीं दे सकता। गुरुदेव ने उसे आश्रम में रहने की आज्ञा प्रदान कर दी और अपने विश्वस्त शिष्यों को उस पर नजर रखने की हिदायत दी। कुछ दिनों बाद गुरुदेव ने उसे आश्रम का कूड़ा सिर पर रख कर बाहर फेंक कर आने का आदेश दिया। वह जब जा रहा था तो रास्ते में एक व्यक्ति उससे टकरा गया। सामंत गुस्से में आकर उससे बोला, ‘क्या मुझे इतनी जल्द भूल गए, तुम्हारी इतनी हिम्मत’। गुरुदेव को अपने सूत्र के द्वारा घटना का विवरण मिला तो कहा, ‘अभी इसने सब कुछ नहीं त्यागा है’। कुछ दिनों बाद जब वह कूड़े की टोकरी सिर पर रखकर जा रहा था तो वह फिर एक व्यक्ति से टकरा गया। उसने उसे घूर कर देखा और वह व्यक्ति उससे भयभीत होकर शीघ्रता से चला गया। गुरु जी ने इस घटना को जानकर कहा, ‘अभी उसे और भी त्याग करना है’। इसी प्रकार समय बीतने लगा। एक दिन जब वह सामंत सिर पर कूड़े की टोकरी रखकर फेंकने के लिए जा रहा था तो एक व्यक्ति उससे टकरा गया जिससे कूड़े की टोकरी गिर गई और कूड़ा जमीन पर बिखर गया। सामंत ने उस व्यक्ति की तरफ देखा तक नहीं और संकेत से उसे जाने के लिए कहा। उसने कूड़े को जमीन से उठाकर पुनः टोकरी में भरा और सिर पर रखकर बाहर फेंकने के लिए चल पड़ा। उसके चेहरे पर किसी भी प्रकार का कोई भाव नहीं था। जब वह आश्रम में वापस आया तो गुरुदेव ने उसे अपने पास बुलाया और स्नेह से उसके सिर पर हाथ रखकर कहा, ‘तुमने अपना सब कुछ त्याग दिया है। धन-संपदा परिवार का त्याग इस त्याग के सामने कुछ भी नहीं है। तुमने ‘मैं’ का त्याग कर दीक्षा की पात्रता सिद्ध कर दी है, मैं तुम्हें अपना शिष्य स्वीकार करता हूं’। इतना सुनते ही उसके नेत्रों से अविरल धारा बहने लगी और वह गुरुदेव के चरणों में झुक गया। उस समान्त के पूर्णरूप से किए गए समर्पण भाव से प्रसन्न होकर और सेवा करने के फलस्वरूप ही सद्गुरु की कृपा मिली।
सेवा कार्य के साथ-साथ यह भी जरूरी है कि गुरु के वचन नहीं काटने चाहिए। गुरु ने जो कहा उसे अक्षरश: पालन करना ही शिष्य का परम धर्म है। ऐसी ही एक पौराणिक मगर सत्य कथा यहां उल्लेखनीय है।
गुरुकृपा और सेवा से आरुणि बने महान मुनि उद्दालक
आयोद धौम्य ऋषि अपने आश्रम में शिष्यों को विद्या अध्ययन करवा रहे थे कि अचानक ही बादल उमड़-घुमड़ कर आए और वर्षा प्रारम्भ हो गई। जब कुछ समय पश्चात बारिश ने तीव्र गति पकड़ ली तब ऋषि धौम्य का ध्यान इस ओर गया। वे कुछ चिन्तित होकर बोले कि कहीं खेत की मेड़ न टूट जाए, यदि ऐसा हो गया तो पानी खेत में ठहरने की बजाए बह जाएगा और फसल को हानि हो जाएगी। उन्होंने अपने शिष्य आरुणि को संकेत से अपने पास बुलाया और आदेश दिया कि शीघ्र ही खेत में जाकर देखो कि खेत की मेड़ तो नहीं टूट गई है, यदि टूट गई हो तो उसे फिर से बना देना और यह भी ध्यान रहे कि खेत का पानी बह न जाए। आरुणि ने नतमस्तक होकर कहा, ‘जो आज्ञा गुरुदेव’ और वह बारिश में भीगता हुआ खेत की ओर चला गया। ऋषि धौम्य पुनः पाठन कार्य में लिप्त हो गए। ऋषि धौम्य बहुत ही अनुशासन प्रिय व परिश्रमी थे और उनके शिष्यों को भी कड़ी मेहनत करनी पड़ती थी । इनका शिष्य आरुणि पांचाल देश का रहने वाला था और आश्रम में रहकर ही विद्या अध्ययन करता था। पहले गुरुकुलों में रह कर ही विद्या अध्ययन करने की परम्परा थी।
सुबह से शाम हो गई और अंधेरा घिरने लगा। रह-रहकर बिजली कड़क रही थी और बादल गरज रहे थे। ऋषि धौम्य को अकस्मात ही विचार आया कि आरुणि तो यहां दिखाई नहीं दे रहा। उन्होंने अपने शिष्यों से पूछा कि आरुणि कहां है? उन्होंने उत्तर दिया कि गुरुदेव आपने ही तो उसे खेत में मेड़ की रखवाली के लिए भेजा था। गुरुदेव चिन्तित हो गए और कहने लगे कि सुबह से गया आरुणि अब तक क्यों नहीं आया, मेड़ देखने का कार्य तो इतनी देर का नहीं था। ऋषि धौम्य ने अपने शिष्यों से कहा कि मुझे बहुत चिन्ता हो रही है, तुम सब मेरे साथ चलो, आरुणि को खेत में जाकर ढूंढ़ते हैं।
ऋषि धौम्य शिष्यों को साथ लेकर खेत में आए तब भी छुटपुट बूंदाबांदी हो रही थी। उन्होंने चारों तरफ नजर दौड़ा कर देखा लेकिन आरुणि उन्हें कहीं भी दिखाई नहीं दिया। सारे शिष्य खेत में जाकर ढूंढ़ने लगे। ऋषि धौम्य ने विकल होकर आवाज लगाई, ‘वत्स आरुणि, तुम कहां हो?’ उनकी आवाज के प्रत्युत्तर में आरुणि की आवाज आई, ‘गुरुदेव मैं यहां हूं, खेत की मेड़ बना हुआ हूं।’ ऋषि उस आवाज की दिशा में गए तो वह दृश्य देखकर उनकी आंखें नम हो गई। उन्होंने देखा कि उनका शिष्य आरुणि खेत की मेड़ के कटे हुए हिस्से की पूर्ति करने के लिए स्वयं मेड़ बनकर भूमि पर लेटा हुआ है। गुरुदेव को सामने खड़ा हुआ देखकर लेटे हुए ही प्रणाम किया और कहा कि गुरुदेव बारिश इतनी अधिक हो रही थी और यह मेड़ यहां से टूट गई थी। मैंने इस टूटे हिस्से को भरने का बहुत प्रयास किया लेकिन जो मिट्टी मैं डालता था वह तुरन्त ही बह जाती थी। अंत में मैं स्वयं ही इस टूटे हुए हिस्से के स्थान पर लेट गया और पानी बहना बन्द हो गया। ऋषि धौम्य ने कहा अब तुम इस स्थान से हट जाओ। आरुणि ने कहा गुरुदेव यदि मैं यहां से हट गया तो पानी बहने लग जाएगा। ऋषि धौम्य ने गद्गद् होकर अपने आज्ञाकारी शिष्य का हाथ पकड़ा और उठाकर गले से लगा लिया। उन्होंने उसके सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया कि तुम एक महान भगवद्भक्त तथा यशस्वी बनोगे और समस्त विद्याएं बिना अध्ययन किए ही तुम्हें प्राप्त हो जाएंगी और ऐसा ही हुआ। कालान्तर में यही आरुणि सद्गुरु की कृपा से महान मुनि उद्दालक के नाम से विख्यात हुआ जिनका उपनिषदों में भी उल्लेख आता है।
रामायण काल में भगवान श्रीरामचन्द्र जी ने गुरु के आश्रम में रहकर जो सेवा कार्य किया था उससे खुश होकर गुरु विश्वामित्र जी ने उन्हें दिव्य अमोघ अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञान प्रदान किया। उन्होंने कई विद्याएं प्रदान कीं जो उनके वनवास काल में सहायक बनीं। रामचरितमानस में वर्णित है-
मुनिवर सयन कीन्हीं तब जाई लागे चरण चापन दोऊ भाई।
जिनके चरण सरोरुह लागी,करत विविध जप जोग विरागी ।
जब गुरु विश्वामित्र जी सोने के लिए बिस्तर पर लेटते थे तब भगवान श्रीराम व भगवान श्री लक्ष्मण जी उनके चरण दबाने लगते थे। गुरु जी बार-बार उन्हें सोने के लिए कहते थे तब ही वे सोते थे-
बार-बार मुनि आज्ञा दीन्हीं,
रघुवर जाय सयन तब कीन्ही ।
और गुरु जी के जागने से पहले ही वे जाग जाया करते थे। इसी प्रकार गुरु वशिष्ठ जी के आश्रम में बाल्यकाल में ही सेवा भाव से विद्या अध्ययन की। गुरु वशिष्ठ जी की आज्ञा व वचनों का कभी उल्लंघन नहीं किया। इतना ही नहीं भगवान श्रीराम जी का समूचा जीवन ही गुरुओं की सेवा में ही व्यतीत हुआ।
भक्त शिरोमणि शबरी का भी उदाहरण रामायण काल से संबंध रखता है। भील समाज से होने के बावजूद भी वे संतों की सेवा करती थीं। जिस मार्ग पर चलकर संतगण स्नान करने के लिए सरोवर तक जाते थे, उस मार्ग के पत्थरों को रात्रि के अंतिम प्रहर में वे हटाती थीं ताकि किसी संत के पैर में पीड़ा न हो। इस कृत्य को व सेवा भाव को मतंग ऋषि ने देख लिया और कृपा कर अपने आश्रम में स्थान दिया। शबरी को उनके गुरु मतंग ऋषि ने आशीर्वाद दिया था कि एक दिन स्वयं भगवान चलकर तुम्हारी कुटिया तक आएंगे। और हुआ भी ऐसा ही कि भगवान श्रीराम तमाम संतों के आश्रमों को छोड़कर शबरी की कुटिया पर आए और जूठे बेर बड़े स्वाद से खाए।
भगवान हनुमान जी तो सेवा के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। सेवा का अर्थ है कि बिना किसी स्वार्थ व लालच के कार्य करना। भगवान हनुमान जी सर्वप्रथम वानरराज सुग्रीव के साथ रहकर निःस्वार्थ सेवा करते रहे और तत्पश्चात् भगवान श्रीराम जी के चरणों में रहकर सेवा की। पूरी रामायण कथा में भगवान बजरंगबली की भूमिका को यदि निकाल दिया जाए तो इसमें कुछ भी नहीं रह जाएगा। सर्वप्रथम माता सीता जी की खोज व लंकादहन का कार्य जो उन्होंने किया, इसके ही परिणाम स्वरूप रावण पर विजय प्राप्त हुई और माता सीता का भगवान श्रीराम जी से मिलन हुआ। भगवान हनुमान जी ही भगवान श्री लक्षमण जी के मूर्छित हो जाने पर संजीवनी बूटी लाए। अहिरावण द्वारा भगवान श्रीराम जी व भगवान श्री लक्ष्मण जी के हरण करने पर, पाताल लोक गए। अहिरावण वध करके इन्हें सकुशल रामादल आए। अयोध्या में जब माता सीता ने अपने प्रिय हनुमान को अनमोल मोतियों की माला दी तो वे मोतियों को तोड़ने लगे। तब इनसे पूछा गया कि आप ऐसा क्यों कर रहे हैं। तब इन्होंने कहा कि मैं इन मोतियों में अपने स्वामी भगवान श्रीराम व माता जानकी को खोज रहा हूं, मगर इनमें वे नहीं हैं। यदि ऐसा नहीं है तो ये माला मेरे लिए व्यर्थ है। इसके बाद उन्होंने अपना सीना चीरकर भगवान श्रीराम व माता जानकी की छवि सबको दिखाकर आश्चर्यचकित व नतमस्तक कर दिया।
–प्रभु कृपा पत्रिका, अगस्त, 2019
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