गुरुदास : परम पूज्य गुरुदेव, सद्गुरु की पहचान क्या है? सद्गुरु कौन होना चाहिए? आप कृपा करें।
परम् पूज्य गुरुदेव : सद्गुरु कभी भीड़ के द्वारा किसी को प्रभावित नहीं करता है। क्योंकि भीड़ भी एक दिशा है, भीड़ भी एक बंधन है, भीड़ भी एक मोह है, भीड़ भी अपनी प्रतिभा दिखाने का, अपना प्रोडक्ट दिखाने का एक विज्ञापन है। सद्गुरु कभी विज्ञापन नहीं करते हैं। आप शिरडी के साईं बाबा, सद्गुरु नानकदेव, अष्टावक्र, स्वामी रविदास की फोटो देखेंगे तो आपको लगेगा कि ये एक भिखारी दिखते हैं जबकि ये वास्तव में ब्रह्मांड के स्वामी हैं।
सद्गुरु अपने आप अर्थात अकेले में भी पूर्ण है। सद्गुरु स्वयं सर्व सम्पन्न है, सद्गुरु स्वयं नारायण है, सद्गुरु स्वयं शिव है, सद्गुरु स्वयं ब्रह्मा है। जो इस आस्था से सद्गुरु के पास जाता है, उसे सद्गुरु मिलता है।
सद्गुरु आपको समय में नहीं ले जाएगा, सद्गुरु आपको उसी पल परमपिता परमात्मा की बोध करा सकता है, परमपिता परमात्मा की जानकारी करा सकता है। परमपिता की जानकारी में सबसे पहले यह जान लेना जरूरी है कि जैसे हम किसी वस्तु को देखते हैं, उस वस्तु को देखने के लिए तीन चीजों की आवश्यकता है। सबसे पहले आँख, दूसरा प्रकाश तथा तीसरा वस्तु की आवश्यकता। यह जो परमात्मा है, वह इन्द्रियों के द्वारा नहीं जाना जा सकता है।
इस जगत् में जो भी है, वह इन्द्रियों के द्वारा जाना जाता है। भगवान् श्रीकृष्ण ने भी कहा है कि परमात्मा को जानने का इन्द्रियों द्वारा कोई उपाय नहीं है। जैसे अर्जुन ने भगवान् श्रीकृष्ण से कहा कि प्रभु मैं विराट रूप देखना चाहता हूँ। जब भगवान् श्रीकृष्ण ने अपना विराट रूप दिखाया तो अर्जुन जैसा असाधारण मानव भी कांपने लगा। भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने रूप को दिखाने के लिए अर्जुन को दिव्य चक्षु प्रदान किये थे। उन दिव्य नेत्रों द्वारा अर्जुन ने स्वयं परमात्मा के स्वरूप को जाना था। इस तरह जो भगवान् हैं, परमात्मा हैं, वह स्वयं जाना जा सकता है, ऐसा भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है। सद्गुरु हमेशा आपके भ्रमों को तोड़ता है तथा आपकी जो खोज है, उसे पूर्णता देते हैं। उसे मुक्ति देते हैं, उसे मंजिल देते हैं, उसे शांति देते हैं। जैसी आपकी आँख होगी, वैसे ही दृश्य नजर आयेंगे। सद्गुरु को ढूंढने से पहले आप में प्रज्ञा होनी चाहिए, बोध होनी चाहिए। यह जान लेना चाहिए कि किस-किस प्रकार से सद्गुरु है और किस-किस प्रकार से सद्गुरु नहीं है। सद्गुरु देने का नाम है, सद्गुरु लेने का नाम नहीं है।
सद्गुरु का यदि शाब्दिक अर्थ करें तो सद् का अर्थ है परमात्मा, गु का अर्थ है अंधेरा और रु का अर्थ है प्रकाश। गुरु आपको अलग-अलग दिशाओं के अलग-अलग विषयों के मिलेंगे लेकिन सद्गुरु अलग-अलग विषयों के नहीं होते। सद्गुरु एक ही विषय का होता है जो सत् का ज्ञान करवाता है। वह सर्वशक्तिमान होता है और वह स्वयं नारायण होता है, परमात्मा होता है। सदा एक ही होता है, एक ही हुआ है और एक ही रहेगा। वह जब भी संसार में आता है तो लीला करने के लिए आता है। जैसे भगवान श्रीराम आए, वे सीता के वियोग में विलाप कर रहे हैं, पेड़ों से पूछ रहे हैं, पर्वतों से पूछ रहे हैं, चंद्रमा और तारों से पूछ रहे हैं। यह हमें प्रतीत होता है। वास्तव में नारायण के लिए हंसना, रोना या विलाप करने जैसी कोई घटना नहीं होती। न ही उनके लिए तारीफ या निन्दा कुछ होती है। जैसे एक पलक झपकी या सागर की तरंग आई उसी तरह सद्गुरु के लिए यह संसार है। हमारे लिए संसार की एक-एक चीज बड़ा महत्व रखती है। थोड़ा सा लाभ हो गया तो हमारी प्रसन्नता का पारावार नहीं रहता, थोड़ी हानि हो गई तो हमारे दुःखों का अंबार लग जाता है, पर सद्गुरु के लिए ऐसा नहीं होता।
यह जगत संबंधों पर टिका हुआ है। जगत में माता-पिता से बढ़कर कोई ऐसा संबंध नहीं होता, लेकिन जगत में जब माता-पिता को बच्चे देखते हैं कि ये माता-पिता मेरी मनोकामना पूर्ण नहीं कर रहे तो माता-पिता से भी बच्चे विरोध कर लेते हैं। इसी तरह पति-पत्नी में है। पति की जब मनोकामना पूर्ण नहीं होती तो वह पत्नी से विद्रोह कर लेते हैं। जब पत्नी की मनोकामना पूर्ण नहीं होती तो वह पति से विद्रोह कर लेती है। इसी तरह यह जगत अपने स्वार्थी, मनोकामनाओं से बना हुआ है। परंतु जब कोई सद्गुरु से संबंध बनाता है तो सद्गुरु पहले ‘उसकी जांच करता है कि इसका संबंध जगत के संबंधों की तरह है या उससे भिन्न है। वह उस व्यक्ति की मनोकामना पूर्ण नहीं करता, रोग दूर नहीं करता, कई तरह से परीक्षा लेता है कि यह व्यक्ति दुःख में भी सुख की तरह रहता है।
जब सद्गुरु को विश्वास हो जाता है कि इसका संबंध अलौकिक है, व्यावहारिक नहीं है, पारलौकिक है तो उस अवस्था में एक घटना घटती है जो सद्गुरु और शिष्य को ही मालूम होती है। उसको जगत नहीं देख सकता, ये आंखें नहीं देख सकती। क्योंकि इन्द्रियों की पहुंच वहां तक नहीं होती। सद्गुरु अपने शिष्य से कितना भी दूर हो पर हृदय के तल पर, आत्मिक तल पर कोई दूर नहीं होता। उस संबंध में कोई मीरा – श्रीकृष्ण दो नहीं होते, राधा श्रीकृष्ण दो नहीं होते। जो लोग ऐसा मानते हैं वास्तव में वे अज्ञानी हैं।
सद्गुरु शिष्य की एक-एक अवस्था को जानता है। जब शिष्य पूर्णरूप से समर्पित हो जाता है। समर्पित होने का अर्थ है कि शिष्य के अन्दर सद्गुरु की सारी शक्तियां आ जाएं। ज्यों जल में जल आए खटाना, त्यों ज्योति संग जोत समाना । जैसे गागर में सागर समा जाए तो सागर और गागर दो नहीं रह जाते, उसका अस्तित्व दूसरा नहीं रह जाता। उसी तरह जब कोई शिष्य अपने शिष्य भाव से पार चला जाता है तो उसमें सद्गुरु के गुण प्रविष्ट हो जाते हैं। उसी से उसके रोगों का अंत हो जाता है, क्योंकि सद्गुरु बाहरी रूप से शरीर है। शरीर नाशवान है लेकिन आंतरिक तल पर वह परमात्मा से मिला हुआ है। जैसे हमें सागर के अन्दर देखने में बर्फ नजर आती है। वह थोड़ी देर के लिए नजर आती है, पर वह सागर है और सागर के साथ एक है। सागर और बर्फ में फर्क नहीं है। इसलिए जब कोई बूंद उस सागर में मिलती है तो वह सागररूप हो जाती है। जिसके अन्दर होने का भाव समाप्त हो जाता है, जिसका ‘मैं’ समाप्त हो जाता है, उस अवस्था को सद्गुरु कहा जाता है। शरीर की किसी अवस्था का नाम सद्गुरु नहीं है।
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है, ‘जो मुझे देवकी का पुत्र मानते हैं। वे मुर्ख हैं। वे मेरे वास्तविक तत्त्व को नहीं जानते।’ भगवान श्रीरामचन्द्र जी के बारे में भी कहा गया है-
एक राम दशरथ का बेटा, एक राम घट-घट में लेटा ।
एक राम का सकल पसारा, एक राम सब जग से न्यारा ॥
ऐसा सृष्टि का नियम है। जैसे कोई बच्चा पढ़ना चाहता है तो अगर उसमें वास्तव में लगन है तो उसके पास चाहे कुछ भी न हो, चाहे वह कितना ही गरीब हो वह उस अवस्था को पहुंच ही जाता है। हमारे सामने बड़े-बड़े महान नेताओं, ऋषियों के ऐसे उदाहरण हैं जिनके पास कुछ नहीं था। उसके बावजूद वे किसी स्थिति में कैसे-कैसे पहुंचे।
सद्गुरु स्वयं शिष्य को खोजता है और शिष्य भी सद्गुरु को खोजता है। ऐसी क्रिया-प्रतिक्रिया दोनों तरफ से घटती है। एक तो बाहरी रूप से कभी भी स्त्री सद्गुरु नहीं होती है। जैसे हम देखते हैं कि जगत में कोई गुरु मां के नाम से या स्त्री स्वरूप में सद्गुरु माना जाता है। गुरु मां का अर्थ है गुरु की माता या गुरु की पत्नी। लेकिन वह कभी सद्गुरु नहीं होती। मां लक्ष्मी कभी सद्गुरु नहीं बनी, उन्हें कभी किसी ने सद्गुरु नहीं कहा। सीता जैसी शक्तिशाली सर्वगुण सम्पन्न कौन होगी, मां लक्ष्मी, मां सरस्वती, मां काली जैसी सर्वगुण संपन्न कौन होगी? मां दुर्गा तक ने कभी अपने आप को सद्गुरु नहीं कहलाया। मां दुर्गा ने भगवान शिव को ही गुरु कहा। वे शिव की अर्द्धांगिनी बनकर उनके चरणों की धूल रूप में रहीं। जबकि उनमें इतनी शक्ति है कि वे स्वयं अनंत अनंत राक्षसों का के नाश कर सकती हैं और उनमें इतनी विनम्रता है कि वे शिव के चरणों की धूल बनी रह सकती हैं।
सद्गुरु नानकदेव की मां कोई साधारण स्त्री नहीं थी। वे असाधारण प्रतिभा की स्वामिनी थी। सद्गुरु नानक जी की पत्नी भी अत्यंत प्रतिभाशाली थी। सद्गुरु नानकदेव की बहन नानकी के गुणों का वर्णन तो शब्दों में करना संभव ही नहीं है। इतना होने पर भी इन महान स्त्रियों ने कभी अपने आपको गुरु नहीं कहा।
भगवान श्रीकृष्ण की पत्नी रुक्मिणी थी। मां राधा को तो भगवान श्रीकृष्ण का ही स्वरूप माना जाता है। लेकिन इन्होंने कभी अपने आप को गुरु मां या गुरु के शब्द से संबोधित नहीं किया।
मीराबाई सर्वगुण सम्पन्न थी। उन्होंने स्वयं कहा है- ‘श्याम की माला जपते-जपते आप हुई मैं श्याम।’ इसके बावजूद भी उन्होंने कभी अपने आपको गुरु के शब्द से संबोधित नहीं किया। उन्होंने कहा कि मेरे सद्गुरु रविदास हैं, मेरे सद्गुरु भगवान श्रीकृष्ण हैं। मैं इनके चरणों की धूल भी नहीं हूं।
स्त्री न कभी सद्गुरु हुई है और न ही भविष्य में कभी होगी। जो व्यक्ति किसी स्त्री को सद्गुरु मानेगा वह रूमाटिज्म से, धन की कमी से और मानसिक तनाव से ग्रस्त रहेगा। उसे कभी मुक्ति नहीं प्राप्त होगी। यह ऋषि-मुनियों तथा शास्त्रों द्वारा प्रमाणित सत्य है।
सद्गुरु नारायण के अतिरिक्त और कोई नहीं हो सकता। सद्गुरु का अपने परिवार से कोई मोह नहीं होता। सद्गुरु के लिए जैसे उनके अपने बच्चे होते हैं, वैसे सारे जगत के बच्चे होते हैं। जो मोह से ग्रस्त हैं, जो काम से ग्रस्त हैं, जो धन से ग्रस्त हैं, अपने आश्रम के नाम से, अपने स्थान से धन एकत्रित कर रहा है, वह सद्गुरु नहीं होता। सद्गुरु को कभी किसी धन व किसी चीज की आवश्यकता नहीं होती। वह स्वयंभू होता है, वह पृथ्वी का सम्राट होता है। जो चाहे कर सकता है। जैसे आपने जगत में देखा होगा कि भिखारी भीख मांगते । हैं, हाथ फैलाते हैं। ऐसा सद्गुरु जिसने आपके सामने हाथ फैला रखे हैं या दानपात्र रखा है कि आपको दानपात्र में धन डालना ही पड़ेगा। जो स्वयं आपसे चाह रहा है, जो स्वयं आपसे मांग रहा है वह आपको क्या देगा? सद्गुरु अचाह, अकाम का नाम है जिसमें कोई चाह नहीं है, जिसमें कोई वासना नहीं है, कोई इच्छा नहीं है।
सद्गुरु तो कवि है, महाकवियों का भी महाकवि है। सद्गुरु कभी दावा नहीं करता कि ऐसा होगा। कभी उत्तेजित नहीं होता। कभी वह भाव में नहीं आता, कभी वह रोने नहीं लगता । सद्गुरु की शांति स्वयंभू है, उसकी बनाई हुई नहीं है।
सद्गुरु का अर्थ मुक्ति का दाता है। यह सारा जगत तन, मन, धन, काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि बंधनों से जकड़ा हुआ है, परंतु सद्गुरु इन सभी को अपने वश में रखता है और इनका उपयोग करता है। सद्गुरु कभी किसी को प्रभावित नहीं करता क्योंकि प्रभावित करना भी एक हिंसा है। दूसरों को प्रभावित करके हम उनसे धन लेते हैं और हम अपनी वस्तु उसे देते हैं, यह व्यापार का नियम है। सद्गुरु नियमातीत है। सद्गुरु से स्वयं लोग प्रभावित होते हैं। सद्गुरु की आभा, सच्चाई, शांति व उसका सूर्य स्वयं प्रकाशित है। जो स्वयं अंधकार को दूर करने वाला है।
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