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श्रीराम और माँ सीता के विरह का गोपनीय रहस्य

गुरुदास : परम पूज्य गुरुदेव, श्रीराम और माँ सीता के विरह का रहस्य क्या है ?

परम पूज्य गुरुदेव : रामायण की यथार्थता के बारे में यह अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न है। इस प्रश्न को समझने के लिए काफी शांत मन और निष्काम भावना की आवश्यकता है, तभी इसे समझा जा सकता है। एक छोटी सी कथा, जो ऋषियों व संतों द्वारा जानी गई है उसके माध्यम से इसे समझा पाएंगे।

जब भगवान श्रीराम रावण का वध करके 14 वर्ष का वनवास काटकर अयोध्या लौटे तब सभी ने कैकेई को कहा कि तूने ऐसा क्या कार्य किया कि इतने सर्वप्रिय जनमानस, करुणा के सागर और कल्याणकारी श्रीराम को 14 वर्ष के लिए वनवास भेज दिया। आपके हृदय में पीड़ा नहीं हुई? कैकेई ने कहा, ‘राम से मेरा अनन्य प्रेम है, मैं राम को उतना ही प्रेम करती हूं जितना भरत को पर मन्थरा ने उस समय मेरे मन में क्या डाल दिया कि मेरी बुद्धि भ्रमित हो गई और मैंने न जाने किस कारणवश मन्थरा के कहने पर ऐसा आचरण किया। ऐसा चरित्र किया जिससे मुझे पति का विछोह भी सहना पड़ा और मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम को वनवास भेजना पड़ा।’

तब मन्थरा को बुला कर पूछा गया कि आपने ऐसा क्यों किया ?तो मन्थरा दासी ने कहा, ‘वास्तव में मेरा हृदय राम के प्रति अपार स्नेह से भरा हुआ है। मैं जिन ऋषियों के आश्रम में जाती थी उन ऋषियों ने मुझे ऐसी प्रेरणा दी कि तुम ऐसा कैकेई से बोलो।

जब ऋषि-मुनियों को बुलाया गया तो उन्होंने कहा, ‘हम जिन देवी-देवताओं की आराधना करते हैं, प्रार्थना करते हैं, उनको साक्षात देखते हैं उन देवी-देवताओं ने हमें यह कहा, आदेश दिया था कि तुम ऐसी प्रेरणा, सन्देश मन्थरा के हृदय को दो।’ और जब देवी-देवताओं को आराधना करके बुलाया गया और उनसे कारण पूछा गया कि आपने ऐसा क्यों किया? तो उन्होंने कहा, ‘हमें भगवान श्रीराम ने स्वयं ऐसा करने को कहा था।’

भगवान श्रीराम या श्रीकृष्ण पर इस जगत का कोई भी नियम लागू नहीं होता और भगवान वशिष्ठ को भी इस बात का ज्ञान था। भगवान श्रीराम ने जगत को दिखाया कि हम किस तरह पत्नी के साथ और पत्नी के बिछोह में भी समभाव से रह सकते हैं। भगवान श्रीराम का आगमन जन कल्याण, मर्यादा के लिए था कि कैसे भाई-भाई को रहना चाहिए, कैसे पिता-पुत्र को रहना चाहिए, कैसे भक्त और भगवान को रहना चाहिए। जैसे भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है-

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत! ……

जब धर्म का नाश होने लगता है, अधर्म का बोलबाला हो जाता है और जगत में दिव्य शक्तियों को लोग नहीं मानते, अपनी मनमर्जी से चलते हैं और नाना प्रकार के आडंबर फैल जाते हैं, भगवान विष्णु की भक्ति कम होने लगती है, सभी हिरण्यकश्यप की तरह अपने आपको भगवान मानने लगते हैं। तब भगवान उन शक्तियों का नाश करने के लिए अवतरित होते हैं।

भगवान श्रीराम को भी पता था क्योंकि उन्होंने रावण और आसुरी शक्तियों का नाश करना था । यह भगवान की लीला थी, ऐसा शास्त्रों में वर्णित है। इसे कोई भी देख सकता है।

राजा जनक का राज्य बहुत बड़ा था। अयोध्या का राज्य उनके सामने कुछ भी नहीं था। लेकिन सीता के इतनी साधन संपन्न होते हुए भी, सर्वगुणसंपन्न होते हुए भी कोई भाव कभी नहीं आया।

आप यह जानकर हैरान होंगे कि स्त्रियों के रोगों का एक कारण यह भी है कि वे बीते समय को भुला नहीं पाती। जिस प्रकार कोई शिष्य अपने आप को महत्व देने लगे या विद्यालय आकर अपने गुरु का अपमान करने लग जाए तो उसमें वह विद्वता नहीं आती जैसे आनी चाहिए जो स्त्री अपने माता-पिता के गुणों का बखान करती है और पति के माता-पिता को या पति के परिवार को सम्मान नहीं देती, उस स्त्री के मन में कभी आत्मिक शांति नहीं आ सकती, चाहे वह किसी भी गुरु के पास चली जाए, किसी भी आश्रम में चली जाए, कितनी भी तपस्या कर लें।

आजकल के परिवेश में ऐसा मानना उचित नहीं लग रहा, इसमें स्त्रियों को लगेगा कि शायद हमारे सम्मान को कम किया जा रहा है क्योंकि स्त्री-पुरुष समान हैं। लेकिन वास्तव में ऐसा कुछ नहीं है। स्त्री-पुरुष कभी समान नहीं हो सकते। जैसे गुरु-शिष्य कभी समान नहीं हो सकते, पिता-पुत्र कभी समान नहीं हो सकते। पुत्र अगर राष्ट्रपति भी बन जाए तब भी वह अनपढ़ माता-पिता की बराबरी नहीं कर सकता। उसी तरह स्त्री चाहे कितने भी धनाढ्य परिवार से आई हो, कितना भी धन कमाने लगे, वह पति के बराबर नहीं हो सकती।

कितनी स्त्रियां इस प्रकार की हैं जो अनेक आश्रमों में, अनंत गुरुओं के पास जाती हैं मगर वे पति को कुछ नहीं समझती। जो पत्नी अपने पति को कुछ भी नहीं समझेगी और अपने गुरू को सम्मान देगी उस स्त्री को कभी आत्मिक शांति नहीं मिलेगी, उसकी कभी कुण्डली जागृत नहीं होगी।

आप यह जानकर हैरान होंगे कि माता सीता बार-बार आग्रह करके श्रीराम के साथ वनवास गई थी। वनवास के बाद भी भगवान राम ने सीता मां के बार-बार कहने पर और आंतरिक भावना में गुप्त संदेश के वशीभूत होकर समाज कल्याण के लिए उन्हें ऋषि के आश्रम में भेजा। इसमें भी एक रहस्य है।

आमतौर पर देखने में यह लगता है कि मां सीता की बड़ी दुःखदायी अवस्था है। वास्तव में देखा जाए तो जब स्त्री का गर्भधारण हो जाता है। उस समय पुरुष का संसर्ग न होना बच्चों के लिए कल्याणकारी होता है। इस रहस्य को आधुनिक जगत नहीं जानता। गर्भवती स्त्री जिस प्रकार के वातावरण में रहेगी बच्चे का विकास उसी तरह का होगा। बाल्मीकि से बढ़कर और कोई तत्त्ववेत्ता कौन होगा? इसलिए भगवान राम ने सीता मां को उनके आश्रम में भेजा, जिससे उन बच्चों का विकास हुआ।

जो स्त्रियां गर्भ अवस्था में आराम करती हैं, अपने शरीर को चलने फिरने नहीं देती, अपने शरीर से कोई व्यायाम नहीं करती, उनके बच्चे कमजोर होते हैं। उन्हें शारीरिक रूप से नाना प्रकार के रोग घेर लेते हैं। सीता माता के आश्रम में रहने से वहां ऋषियों की वाणी, उनकी शक्ति और वहाँ जो वे स्वयं काम करती थी उसका लव कुश पर प्रभाव पड़ा। उसी से लव कुश का निर्माण हुआ और उस लव कुश की शक्ति का अनुमान करो कि जिसे भगवान हनुमान, लक्ष्मण, शत्रुघ्न जैसे नाना प्रकार के योद्धा जिन्हें इस पृथ्वी पर हराना संभव नहीं था को किस तरह धराशायी किया। यह ऋषि-मुनियों के आश्रमों का प्रभाव है।

देखने में ऋषि-मुनि के आश्रम साधारण से लगते हैं, गुफा सी लगती है। वे गरीब लगते हैं लेकिन वे कितनी शक्ति से परिपूर्ण होते हैं और उनमें कितनी नम्रता होती है।

आज हमारे पास थोड़ी सी कोठी बन जाए, कुछ कारें आ जाएं या हमारे पास अस्त्र-शस्त्र आ जाएं तो हमारी चाल बदल जाती है, हमारा बोलने का ढंग बदल जाता है। हम जगत को दिखाते हैं कि हम कितनी प्रतिभा के स्वामी हैं। हमारा रूप देखो, हमारा यौवन देखो, हमारा साम्राज्य देखो, हमारा वैभव देखो। लेकिन वे ऋषि-मुनि अनंत शक्तियों के स्वामी थे इतना होने के बाद भी उनके चेहरे पर किंचित मात्र भी अहम नहीं था, लोभ नहीं था, विकार नहीं था।

आज भारतभूमि पर जो प्रेम है, प्रेम का साम्राज्य है, पति-पत्नी का प्रेम है, पिता-पुत्र का प्रेम है यह भगवान राम की कृपा का ही परिणाम है, ऐसा शास्त्रों द्वारा, ऋषि-मुनियों द्वारा और संतों द्वारा देखा, जाना और अनुभव किया गया है।

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