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मन के पार जाने की राह

गुरुदास : परम पूज्य गुरुदेव, हमारे दुःखों, कष्टों का मूल मन है, इसे नियंत्रित करने के लिए बहुत सी विधियां अपनाई जा रही हैं। आप कृपा करके बताएं कि मन पर कैसे नियंत्रण किया जाए?

परम पूज्य गुरुदेव : यह सारा जगत माया के प्रसार से व्यापार और स्वार्थ का डेरा बन चुका है। अगर मन का पूरा नियंत्रण हो जाए तो विस्फोट तक हो सकता है और मेरे उक्त वक्तव्य पर आजकल के तथाकथित धर्मगुरू रुष्ट होकर विद्रोही भी हो सकते हैं। उन्हें आपत्ति हो सकती है लेकिन जैसा कि कहा गया है। कि ‘अन्याय सहना भी एक प्रकार से पाप है’ तो अगर मैं इस सारी स्थिति से वाकिफ होते हुए भी मौन रहता हूं, तटस्थ रहता हूं, वास्तविकता का प्रकटीकरण नहीं करता तो मुझे या कोई भी और जो जानकार है पर खामोश है, उन्हें भी सत्य को छिपाने का दोष लगता है। जैसा कि इतिहास में दर्ज है कि गैलीलियो के इस उद्घाटन कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है’ से पहले लोग यही मानते थे कि । पृथ्वी स्थिर है एवं सूर्य घूमता है तो गैलोलियों की आवाज को दबाने के लिए उसे तरह-तरह के प्रलोभन दिये गए कि ‘तू ऐसा कहेगा तो हमारे सारे धर्मग्रंथ गलत हो जाएंगे।’ पर सच्चाई छिप नहीं सकती। इसीलिए गैलीलियो ने किसी प्रकार भी दबाव के आगे झुकने से मना कर दिया कि ‘अगर में आज चुप रह जाता हूँ तो कल कोई और वैज्ञानिक आकर सत्य को प्रकाशित करेगा तो मैं पाए। का भागी क्यूं बनू?” सत्य की खातिर ही सुकरात ने भी विष का प्याला पिया और अन्तिम क्षणों में भी उसकी सत्य की खोज जारी रही।

आजकल धर्मगुरु एक फैक्ट्री के प्रोडक्ट की तरह पैदा हो रहे हैं और अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए ही ऐसा आचरण व ज्ञान बांटते फिर रहे हैं जिससे जनसाधारण की मानसिकता निम्न स्तरों की तरफ जा रही है। ऐसी जितनी भी | विधियां मार्केट में धर्म के ठेकेदारों द्वारा बताई गई है, सब निष्फल हैं। मन को नियंत्रण करने वाला कोई भी यंत्र या उपकरण नहीं है। मन तो दर्पण है जो आपको आपका वास्तविक रूप दिखाता है, उसका नियंत्रण कैसे संभव हो सकता है। जो मन को कोई कंट्रोल में कर ले, काबू में कर ले, ऐसा भी कोई व्यक्ति नहीं है। हाँ मन को जाना जा सकता है एवं मन के पार जाया जा सकता है। मेरी बातें आपको अटपटी लग सकती हैं, लेकिन सच्चाई यही है। आप बताइये दुनिया में कोई ऐसा व्यक्ति है जो अंधरे को नियंत्रण में कर ले ?प्रकाश अंधेरे को मिटा तो सकता है लेकिन नियंत्रण नहीं कर सकता। एक का अस्तित्व दूसरे का समापन है। इसे आप विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक आईंस्टीन के सापेक्ष सिद्धान्त से भी जोड़ सकते हैं।

निष्कर्ष यह निकलता है कि मन को लोप तो किया जा सकता है, मन को विलीन तो किया जा सकता है। मन से पार तो जाया जा सकता है पर नियंत्रण हास्यास्पद है। मन को काबू करने की विधियां बताने वाले भी मन से ही तो बात करते हैं। तो मन से मन कभी कंट्रोल में नहीं आता। आदमी इसी प्रयास में डोर के धागों की तरह उलझता चला जाता है। आजकल के गुरु किसी गुरुमंत्र द्वारा मन को बांधने की विधि, उपाय, टैक्नीक बताते हैं कि ‘तू इसमें बंधा रह और मेरा नाम जपता रह’, पर वास्तव में उन्हें सफलता नहीं मिलती।

गुरुदास : परम पूज्य गुरुदेव, एक आम धारणा है कि योग से मन को बांधा जा सकता है। क्या ऐसा संभव है?

परम पूज्य गुरुदेव : योग क्रियाओं, त्राटक या प्राणायाम से मन कुछ समय के लिये शान्त अवश्य हो सकता है लेकिन काबू नहीं हो सकता। मैं विश्व के अनेकों योगियों, साधकों के पास गया हूं, जिनके लाखों शिष्य हैं और वे स्वयं अभी तक अपने मन पर कंट्रोल नहीं कर पाए हैं। उनके अहम् को थोड़ी सी चोट पहुंचे तो वह भड़क उठते हैं तो यह सब कहने की बातें हैं। मन को बांधने के गलत प्रयोग मानव को गलत दिशा में ले जाते हैं और मन को बार-बार बांधते हैं। और मन खूंटे से बंधे जानवर की तरह बार-बार स्वयं को बंधन से मुक्त करना चाहता है और पुनः पुनः चंचल हो उठता है।

अगर डॉक्टर किसी स्वस्थ आदमी को रोगी मानकर दवाई देता रहे तो वह तो उस रोगी से भी ज्यादा खतरनाक स्थिति हो जाएगी, अगर उस आदमी को वह रोग रहता। जैसे होम्योपैथी में प्रोविंग ऑफ ड्रग्स सिद्धान्त है जिसके चलते जो दवाई किसी रोगी को ठीक करती है, वही अगर स्वस्थ आदमी प्रयोग कर ले तो उसी रोग के लक्षण उस स्वस्थ आदमी में उत्पन्न हो जाते हैं। कुछ डॉक्टर रोगी की जांच करने पर उसमें कोई रोग न पाकर उसे ‘भ्रम’ नामक रोग का शिकार बना देते हैं कि तुझे फलां रोग है। ऐसे डॉक्टर नहीं चाहते कि रोगी उनकी गिरफ्त से छूटे, क्योंकि अगर उससे रोगी छूट जाएगा तो डॉक्टर को कष्ट हो जाएगा। उसी प्रकार अगर हम किसी वकील के पास जाते हैं तो समस्या चाहे कोई हो या न हो वह फिर भी कम करने के लिए कोई न कोई समस्या बना देगा। वह नहीं चाहेगा कि उसका क्लाइंट उससे छूटे। हर बार कोई न कोई नया झमेला डालकर उसकी तारीख डलवा देगा और जितना हो सके केस को लम्बा खींच कर से जाएगा ताकि उसकी सोने की मुर्गी अण्डे देती रहे। लेकिन सही मायनों में अगर कोई वकील होगा तो अपने मुवक्किल की समस्या का हल कम से कम पेशियों में करना चाहेगा। जैसे वह उसका केस लोक अदालत में ट्रांसफर करवा सकता है या स्वयं मध्यस्थ बनकर दोनों पार्टियों में कंप्रोमाइज करवा देगा। पर इस प्रकार के प्रोफेशनल मिलना आज की दुनिया में एक स्वप्न की भाँति है।

इसी प्रकार अगर कोई डॉक्टर, चिकित्सक वास्तव में निर्लोभी है, शुद्ध अन्तःकरण का है एवं सात्विक आचार विचार के साथ निःस्वार्थ व्यक्तित्व है तो वह जल्द से जल्द रोगमुक्त करना चाहेगा पर स्वार्थ में अन्धे कुछ डॉक्टर धोखे से असहाय रोगी के गुर्दे तक निकाल लेते हैं व उन्हें बेच भी देते हैं। आजकल के अधिकांश तथाकथित गुरु उपरोक्त प्रकार के डॉक्टरों एवं वकीलों की श्रेणी में आते हैं। वे चाहते हैं उनके शिष्य उनके जाल में फंसे रहे। उनकी दुकानदारी चलती रहे। वे आलीशान बंगलों, पांच सितारा होटलों में ठहरते रहे एवं महंगी कारों में घूमते रहें। मन को काबू करने की कोई उल्टी सीधी तरकीब बताकर या दीक्षा के नाम पर कोई मंत्र देकर बेचारे शिष्य को ऐसा उलझाते हैं कि वह सारी जिंदगी इनके चंगुल में फंसा रहता है बल्कि ‘गुरुगद्दी’ बदलने पर उसकी आने वाली पीढ़ियां भी इसी शोषण का शिकार होती रहती हैं। मैं इस प्रकार के ‘संगठित गुरुडम’ का कट्टर विरोधी हूं। ऐसे तथाकथित पाखण्डी गुरुओं एवं स्वयंभू आध्यात्मिक नेताओं का बहिष्कार करना चाहिए।

गुरुदास : परम् पूज्य गुरुदेव, जब आदमी मानसिक रूप से विक्षिप्त होता है, मानसिक रूप से कमजोर होता है या मानसिक रूप से भयभीत होता है तो उससे उसके शरीर पर असर पड़ता है। इसके पीछे क्या रहस्य है?

परम पूज्य गुरुदेव : इस प्रश्न के उत्तर को अगर मानव तथा चिकित्सक समझ ले तो उससे काफी समस्याओं का समाधान हो सकता है। इस जगत् में हम जो भी कार्य करते हैं या मानव जो भी कार्य करता है, उसकी आँख भी हिलती है, उसका शरीर का अंग भी हिलता है, वह बोलता है, प्रेम करता है, झगड़ा करता है, व्यापार करता है, आपसी संवाद करता है, भक्ति करता है, विद्रोह करता है, विरोध करता है। कुछ भी आचरण करता है, अनाचरण करता है, वह सारा मन के कारण है। अगर उसकी मन की अवस्था ठीक है तो लगभग उसे किसी भी प्रकार का रोग नहीं होता है। हमारे जो भी हाव-भाव हैं, क्रोध हैं, विकार हैं, इन्हीं के कारण हमें रोग हो रहे हैं। ये आधुनिक चिकित्सक की पहुँच से परे की चीज है जैसे अस्थमा, ब्लड प्रेशर, हाईपरटेंशन, हृदय के रोग, गुर्दे के रोग, लीवर के रोग, रूमाटिज्म, अर्थराइटिस आदि। किसी को भी यह ज्ञात नहीं है। कि मन का भी इसमें सहयोग है। आप जानकर हैरान होंगे कि जिन लोगों को गुर्दे के रोग हैं, चिकित्सक उसे जो भी दवाई देते हैं वह खाली मेंटल सेटिस्फेक्शन के लिए देते हैं या ट्रंकोलाइजिंग मेडिसिन देते हैं ताकि इससे रोगी का मन शांत हो जाये। मन शांत होने से शरीर को आराम मिलता है। चिकित्सक ऐसे रोगी को दूसरी मेडिसिन डाईरोटिक देते हैं ताकि इससे पेशाब हो जाये। इस प्रकार दो। प्रकार की मेडिसिन देते हैं। जैसे किसी को हाईपरटेंशन है, ब्लडप्रैशर है तो चिकित्सक उसे ट्रंकोलाईजर तथा डाईरोटिक मेडिसिन ही देगा। उसका जो कारण है वह मन है। क्योंकि मन जो है वह हमारी इन्द्रियों का राजा है। पीटूटरी ग्लैंड ही है सारी इन्द्रियों का मुख्य केन्द्र हैं। जब हमारा मन निर्भय होगा, जब हमारा मन वासना रहित होगा, हमारा मन शक्तिपूर्ण होगा, हमारे मन में किसी भी प्रकार का क्लेश नहीं होगा तो नब्बे प्रतिशत् हमें कोई रोग नहीं होगा। हमे टेंशन भी नहीं होगी, हमें चिंता भी नहीं होगी। जिसका शरीर विश्राम में होगा, शांति में होगा, उसका गुर्दा भी ठीक तरह से कार्य करेगा। जैसे हम रात में सोते हैं तो हमें किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं होता है। उसी तरह आदमी जाग्रत अवस्था में भी शांति अवस्था में रहेगा तो उसका तन कार्य करता रहेगा, उसे कोई रोग नहीं होगा। अब जो आधुनिक बच्चे हैं, ड्रग्स ले रहे हैं, तरह-तरह के नशीले पदार्थ का सेवन कर रहे हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि उसकी मानसिक स्थिति ठीक नहीं है। वह अपने से अपने-आपको बेचैन समझते हैं। वह मन से अपने-आपको शांत अनुभव नहीं करते हैं। ऐसे बच्चे शांति प्राप्त करने के लिए नाना प्रकार की औषधि या ड्रग्स का सेवन कर रहे हैं। इस मन की अवस्था से ही तन जुड़ा हुआ है। यह मन बिना तन के भी स्वप्न में अर्थात् अचेतन अवस्था में कई दृश्यों को देख लेता है क्योंकि मन की गति सबसे तेज है। जो व्यक्ति मन को शांत करने की प्रवृत्ति को समझ लेगा, उसे किसी भी प्रकार का रोग नहीं होगा। आपको शायद मालूम हो कि जितने प्रकार के पेन किलर हैं, वह मन को शांत अर्थात् विश्राम देने के लिए हैं। जब व्यक्ति मन को विश्राम करने की विधि को जान जायेगा तो उसका जीवन सहज, सरल, सम्पन्न होगा और वह निरोगी रहेगा।

गुरुदास : परम पूज्य गुरुदेव, ध्यान से हमारे मन के रोग तो समाप्त होते हैं मगर आपका आशय यह है कि इससे तन के रोग भी समाप्त होते हैं? कृपया इसका विवेचन करें।

परम पूज्य गुरुदेव : आपने जगत कल्याण के लिए ध्यान के बारे में गहरा, अनूठा प्रश्न किया है। ध्यान करने से मन के रोग तो निश्चित तौर पर दूर होते हैं। लेकिन ध्यान तन के रोगों से भी छुटकारा दिलाता है। इस जगत् में जितने भी तन के रोग हैं, तन के कष्ट हैं, उनके लिए चिकित्सक के पास जायेंगे तो वह आपको कोई पेन किलर मेडिसिन दे देगा। उस मेडिसिन में ट्रंकोलाइजर तत्व होता है। वह आपको निद्रा देगा, आपके मन को विश्राम देगा। अगर किसी व्यक्ति को अर्थराइटिस है, रूमाटिज्म है अथवा कोई रोग है तो चिकित्सक उसे जो भी दवाई देगा, वह उसके मन पर प्रभाव डालेगी। जो हमारे मन में सूक्ष्म तंत्रों का जाल है, जो हमारे रोग के तत्व हैं, रोग का जो स्थान है, उसमें सूक्ष्म वाहिनी है जो संदेश लेकर जाती है। उन व्यक्तियों के मस्तिष्क में आकर उसे सुषुप्तावस्था में ले जाती है। जितने भी प्रकार की औषधि है, वह मन को तन्द्रा में ले जाती है, मन को निद्रा में ले जाती है, तन को विश्रामावस्था में लाती है। इसी से व्यक्ति को लगता है कि मेरा रोग दूर हो गया है, मैं रोगों से मुक्त हो चुका हूँ। लेकिन इन औषधियों से व्यक्ति के रोग, कष्ट तथा दर्द दूर नहीं होते हैं बल्कि उन्हें नया रोग हो जाता है। परंतु अगर कोई व्यक्ति ध्यान करता है तो व्यक्ति मन के अन्तःकरण की गहराईयों में चला जाता है और मन के जो छुपे हुए रहस्य हैं, जो हमारे मन में छुपी हुई वासना है, मन में जो छुपे हुए रोग हैं, उसे समाप्त करती है। यह जो ध्यान है वह श्वास की प्रक्रिया के द्वारा, ध्यान की प्रक्रिया के द्वारा, सद्गुरु की कृपा के द्वारा वह जो सूक्ष्म जाल है उसको भी काट देता है। जैसे कि ओशो के पास एक व्यक्ति आया, उन्हें एड्स था । उसने यह बात किसी को नहीं बताई और वह ओशो के संरक्षण में ध्यान करने लगा। केवल तीन माह के ध्यान करने के बाद उसने अपने शरीर की जाँच करवाई तो हैरान रह गया कि वह एड्स रोग से मुक्त हो चुका था। एड्स जैसा भयंकर रोग जिसकी अभी तक कोई दवाई नहीं है। इस तरह ध्यान में इतनी शक्ति है कि वह ऐसे रोगों को भी ठीक कर सकता है।

गुरुदास : परम पूज्य गुरुदेव, मन में भाव का क्या महत्व है? कृपया इसे स्पष्ट करने की कृपा करें।

परम पूज्य गुरुदेव : यह प्रश्न जगत के लिए अत्यंत सुन्दर है। यह जो संपूर्ण जगत है, यह सारा मन से चलता है। अर्थात् हमें जो भी नजर आ रहा है, जो भी हम बोलते हैं तथा जो भी हम कार्य करते हैं, वह मन के द्वारा हो रहा है। अतः यह जो जगत् है, वह मन का जगत् है। मनुष्य की इन्द्रियों का स्वामी मन है और जो मन से भी गहरा है, वह भाव का तल है। कोई व्यक्ति अगर कोई कार्य करना चाहता है मगर उसका भाव अगर काम नहीं करेगा तो वह मन से कार्य नहीं कर पायेगा क्योंकि इस भाव की शक्ति मन से चार गुना ज्यादा है। जैसे अगर कोई व्यक्ति डॉक्टर बनना चाहता है मगर उसका भाव उसे साथ नहीं देता है तो वह डॉक्टर नहीं बन पाता है जब तक मन ओर भाव चेतन तथा अचेतन अवस्था में एक होकर नहीं मिलेंगे, तब तक वह आदमी किसी कार्य में सफल नहीं हो पायेगा। अगर कोई व्यक्ति संकल्प कर ले तो ही वह सफल हो पाता है क्योंकि संकल्प शक्ति में भाव की प्रगाढ़ता छिपी हुई रहती है। इस सफलता के मार्ग पर अगर अग्रसर होना है तो भाव के तल पर जाना अत्यंत आवश्यक है। जैसे टीचर बच्चों को बार-बार एक ही चीज याद करवाते हैं ताकि उस बच्चे के मन के भाव तल तक वह शब्द पहुँच जाये। जब कोई शब्द मन के भाव तल में चला जाता है तो वह हमेशा के लिए याद हो जाता है।

अगर मानव अपने संकल्प शक्ति को दृढ़ कर ले कि वह मन के भाव तल में जाना चाहता है तो आदमी भाव तल में पहुँच जाता है और फिर ऐसा व्यक्ति किसी भी क्षेत्र में उन्नति कर सकता है।

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