गुरुदास : परम पूज्य गुरुदेव, आमतौर पर जनसाधारण की यह मान्यता है और एक स्वाभाविक संशय भी है कि जो व्यक्ति धार्मिक है, धर्मपरायण है अथवा जिस व्यक्ति की ईश्वर में आस्था अधिक होती है, वह ही आमतौर पर अधिक पीड़ित होता है, व्यथित होता है, दुःखी होता है एवं भौतिक तथा सामाजिक दृष्टि से अभावग्रस्त भी होता ऐसा क्यों?
परम पूज्य गुरुदेव : ऐसा नहीं हैं यह केवल भ्रम है। आप यह कैसे कह सकते हैं कि इस जन्म में जो पुण्य वह कर रहा है, उसका सुफल उसे आगे आने वाले जीवन या जन्मों में क्या मिलेगा या कब मिलेगा? और अभी हाल में जो वह भुगत रहा है, क्या पता इस कर्मफल का किस जन्म जन्मांतर से संबंध जुड़ा हुआ है, जिसे इसी जन्म में भोगना निश्चित है। मानव जीवन में तीन प्रकार के कमी का समावेश रहता है-क्रियामान, प्रारब्ध एवं संचित । अब संचित कर्मों का जिस प्रकार उपयोग हो रहा होगा, उस समय उस प्रकार की ग्रह दशा होगी, उस प्रकार का वातावरण मिलेगा, उस प्रकार की हम संगति करेंगे अथवा तदनुरूप व्यसनों में हम फंस जाएंगे। उस-उस प्रकार के रोगों से पीड़ित हो जाएंगे। यह निश्चित है। लेकिन पाप पूर्व जन्म का है या अनेकों जन्म जन्मान्तरों का, यह नहीं मालूम कि किस जन्म का है?यह शास्त्र सम्मत बात है एवं इसमें सत्य का समावेश है।
जब आप यह कहते हैं कि फलां आदमी भगवान का नाम भी ले रहा है और उस पर घोर संकट, दुःख, आपत्तियां भी आ रही हैं और आपको यह विरोधाभास भी दिखाई देता है, पर कभी आपने इस दृष्टिकोण से भी सोचकर देखा है कि अगर वह प्रभु का नाम भी न लेता तो और भी भयानक संकटों का शिकार हो जाता, चल भी न पाता। किसी अस्पताल में पड़ा होता अर्थात उसकी ऐसी दु:स्थिति होती जिसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते। सच यही है कि प्रभु का नाम ही उसे उन भयानक संकटों से बचाए हुए है। मान लो अपने दुष्कर्मों के कारण उसे सूली पर चढ़ाया जाना नियत है या फांसी लगना विधि द्वारा निर्धारित है। लेकिन प्रभु नाम कवच से मात्र सुई चुभने के दर्द या कांटा लगने से ही उसका छुटकारा हो जाए। ऐसे में सूली की जगह ‘शूल’ ले लेता है यानी कर्मों का दुष्परिणाम प्रतीकात्मक होकर रह जाता है। मामूली दर्द के रूप में कर्मफल सूक्ष्म हो जाता है।
एक और उदाहरण से समझें कि आपको बेहद सर्दी लग रही है और आपने कम्बल ओढ़ रखा है और कम्बल लेने के बाद भी आपको ठण्ड लग रही है तो जरा कल्पना करो, अगर आपने कम्बल भी न लिया हो तो आपका क्या होता? आप विदेशों को ले लीजिये। यूरोप को ले लीजिए। भौतिकता में डूबे हुए विदेशी प्रभु का नाम नहीं लेते, नास्तिक प्रवृत्ति के है लेकिन वह ऐश्वर्य भी भोग रहे हैं, यह आपको आभास हो सकता है। लेकिन कभी उनके भीतर उनके अन्तर में झांको क्योंकि हम तो पूरे विश्व में भ्रमण करते हैं। लोगों का देखते हैं, समझते हैं। मंत्रीगण, राजनीतिज्ञ, उद्योगपति ये सभी व्यथित हैं, छिन्न-भिन्न हैं। अपितु जो निर्धन हैं, अभावग्रस्त हैं वे संतुष्ट हैं।
आप भौतिक आँखों से देखते हैं तो आप भौतिक कष्ट ही देखते हैं, लेकिन आंतरिक अवस्था अलग है। प्रभु का जो सिमरण है वह भीतरी कष्टों का भी निवारण करता है। अपने-अपने इष्टदेव का सिमरण अपने विश्वास के अनुसार करने से आपका अन्तःकरण धवल, शुद्ध हो जाता है।
वासना का अन्त दुःख ही है। कोई भी भोग भोगते हुए आपको अच्छा लगेगा लेकिन उसका अन्त, उसकी परिणति हमेशा दुःखमयी ही होगी, यह अटल ध्रुवसत्य है। प्रभु का नाम प्रारंभिक अवस्था में हमें कष्टकर, असुविधाकर लग सकता है लेकिन अन्त कल्याणकारी होगा। समस्त रोगों का नाश करने वाला होगा। प्रभु सिमरण करने वाला सभी तापों से मुक्त हो जाता है। तन, मन, धन व आत्मा से परिपूर्ण हो जाता है। उसे कोई अभाव नहीं रहता। उसका लोक-परलोक दोनों संवर जाते हैं।
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