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उपचार की अद्भुत विधि का रहस्य

गुरुदास : परम पूज्य गुरुदेव, रोगों को जांचने की व उनके उपचार की पुरातन पद्धतियां लोप होती जा रही है, इसका कारण क्या है?

परम पूज्य गुरुदेव : इस प्राचीन, सनातन, गूढ़ दिव्य विद्या के लुप्त होने का मुख्य कारण है कि मानव अतिस्वार्थी हो गया है क्योंकि जितना यह बाह्य जगत है, दृष्टिगोचर सृष्टि है इसे हम मन एवं शारीरिक इन्द्रियों से ही जान सकते हैं। हमारी सारी शिक्षा, भौतिक शिक्षा मन पर ही आधारित है और अच्छा बुरा मन का स्वभाव है। इसे ‘परा विद्या’ भी कहा जाता है। लेकिन जब मानव ‘अ-मन’ अवस्था में चला जाता है तो वास्तविक अमन-चैन, परम शान्ति सद्चित आनन्द का अनुभव होता है। वह भावातीत अवस्था, मन के पार जाने की अवस्था में वही व्यक्ति पहुंच पाता है जिनके अंदर कोई स्वार्थ नहीं हैं, कोई कामना नहीं हैं। क्योंकि इच्छा या कामना ही तमाम दुःखों का मूल कारण है।

बुद्ध धर्म में भी कहा गया है कि ऐसा देव पुरुष, महामानव का दर्जा पा जाता है और जब वह दिव्य शक्तियों का पवित्र व केंद्रित मन से आह्वान करता है, आत्मा की गहराइयों से प्रार्थना करता है तो समस्त ब्रह्माण्ड की दिव्य शक्तियां, ऊर्जा का रूप धारण करके उस विशेष पुरुष की वाणी में आ विराजती। हैं। उनके हृदयासन पर विराजमान हो जाती हैं। तो वे दिव्य शक्तियां जैसा उन्हें आदेश देती हैं, उपदेश देती हैं, वैसे-वैसे शब्द वाणी के द्वारा प्रवाहित होते चले जाते हैं।

मां सरस्वती स्वयं ऐसे महामानवों की जिह्वा पर विराजमान हो जाती हैं एवं प्रभु कृपा उनके नेत्रों से, दृष्टिपात के रूप में अविरल बह निकलती है। उनके हाव-भाव से भी दिव्य कृपा की ही बरसात होती है। वे मौन रहकर भी दिव्य प्रसाद वितरित कर सकते हैं। ऐसे महापुरुषों से ही जगत चक्र कायम है।

गुरुदास : परम पूज्य गुरुदेव जी, क्या इस दिव्य पद्धति को किसी ट्रेनिंग या विशेष प्रशिक्षण द्वारा जाना जा सकता है?

परम पूज्य गुरुदेव : इस विद्या यानी कि अपरा विद्याध्ययन के लिए भी सांसारिक शिक्षा की तरह ट्रेनिंग की परमावश्यकता है। पर उसके लिए ईश्वरीय कृपा की भी उतनी ही आवश्यकता रहती है। साक्षात गुरु की भी आवश्यकता है। इस चराचर जगत में जितनी भी विद्याएं हैं, स्थूल विद्याएं हैं, उनसे भी कहीं कठिन यह सूक्ष्म विद्या है उसके लिए योग्य व सक्षम गुरु के साथ-साथ योग्य पात्र भी मिलना चाहिये। दोनों के अन्दर निःस्वार्थता होनी अनिवार्य है। दोनों के अंदर जगत कल्याण, विश्व भ्रातृत्व एवं वसुधैव कुटुम्बम् की भावना होने की उत्तम अवस्था होनी चाहिये। ऐसी दिव्य-व्यवस्था में प्रभु ‘आयुर्विज्ञान के रहस्य’ गुरु के भीतर एवं गुरु शिष्य के भीतर प्रवाहित करता है।
हमारे ग्रंथों एवं वांङ्मय में ऐसी प्राचीन गुह्यपद्धति का महाउल्लेख है। इतिहास में ऐसे अनेकों वर्णन आए हैं। महाभारत में एक कथा आती है कि उपमन्यु के गुरु आयुद्धकामना एक ऋषि हुए हैं। उपमन्यु ने एक बार तीव्र क्षुधा के कारण जंगल में आक के पत्ते खा लिए थे, जिसके उपरान्त उनकी आंखों पर काफी दुष्प्रभाव पड़ा। आक एक विषैला पौधा है। उपमन्यु आक के पत्तों के दुष्प्रभावस्वरूप दृष्टिदोष से पीड़ित होकर एक सूखे कुएं में गिर गए। व्याकुल होकर उन्होंने अपने गुरुदेव से प्रार्थना की। गुरुदेव के आदेश से उपमन्यु ने अश्विनी कुमारों का स्मरण किया। तब अश्विनी कुमार बन्धुओं ने उन्हें अथर्ववेद व ॠग्वेद की कुछ ऋचाओं का पाठ बतलाया और खाने को कोई औषधि न देकर केवल एक पुआ (मीठी पूरी) खाने को दिया। उनके निर्देशों का पालन करने पर उपमन्यु की आंखें पहले से भी ज्यादा ज्योति से प्रज्ज्वलित हो गई।

गुरुदास : परम पूज्य गुरुदेव, एक और प्रश्न दिव्य-दृष्टि के बारे में है। जिस दिव्य-दृष्टि के बल पर संजय ने आंखों से अन्धे धृतराष्ट्र को महाभारत का आँखों देखा हाल सुनाया था। इसके पीछे क्या कोई यथार्थ अथवा सत्य है?

परम पूज्य गुरुदेव : दिव्य दृष्टि का सिद्धान्त बिल्कुल एक वास्तविकता है और एक परम यथार्थ है व पूर्ण सत्य है। महर्षि व्यास जी ने वह अद्वितीय दिव्य दृष्टि केवल मात्र संजय को, वह भी महाभारत युद्ध के दौरान केवल 18 दिनों के लिये प्रदान की थी। विद्वान तो उस समय और भी रहे होंगे, लेकिन सुपात्र केवल संजय को ही माना गया। इससे यह सिद्ध होता है कि गुरु कृपा किसी एक पर ही हो सकती है। कोई एक विशेष शिष्य ही अपने प्रारब्ध (संचित) कर्म एवं पुरुषार्थ (वर्तमान प्रयास) के आधार पर उस दैवीय कृपा का अधिकारी हो सकता है। सभी पर या बहुतों पर इस दिव्य कृपा का बरस पाना संभव नहीं होता।

फोटो या तस्वीर देखकर रोगी का निदान एवं चिकित्सा विधान बता देना भी गुरु कृपा का प्रसाद ही है। जैसे आजकल दूरदर्शन पर विश्वभर में घट रही घटनाओं को मात्र उपग्रह, सैटेलाइट के प्रक्षेपण से आप देख सकते हैं, यह दूरदृष्टि है। दूरदर्शन या विश्वदर्शन है। लेकिन जो दृष्टि संजय को दिव्य चक्षुओं के रूप में दी गई वह दिव्य दृष्टि है जो त्रिकालदर्शी एवं सम्पूर्ण ब्रह्मांड में भ्रमण करने में सक्षम है। वह दिव्य दृष्टि इन्द्रियातीत है। उसे शब्दों के द्वारा, मन के द्वारा, बुद्धि के द्वारा एवं बाह्य नेत्रों द्वारा नहीं जाना जा सकता। वह दिव्य, अगोचर, अगम्य है। कोई वैज्ञानिक यंत्र ऐसा नहीं है जो उसे जांच सके, माप सके या परख सके। यह तो अनुभव का विषय है जो मन-बुद्धि से परे है।

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