गुरुदास : परम पूज्य गुरुदेव, इष्टदेव के दर्शन आमने-सामने कैसे हो सकते हैं?
परम पूज्य गुरुदेव : आपका प्रश्न अति उत्तम है। इस जगत में अधिकतर लोग तन के रोगों के बारे में जानना चाहते हैं। कोई मानसिक रोग से परेशान है, कोई पारिवारिक रोग से परेशान हैं। बहुत कम ऐसे लोग हैं जो प्रभु के दर्शन की कामना करते हैं। यह भावना संसार में अतिश्रेष्ठ है। यह प्रभु के द्वारा ही प्राप्त होती है। यह अति उत्तम अवस्था कही गई है। जब कोई मानव धन की कामना करता है, रोग की कामना करता है तो यह सकाम कामना होती है।
मानव में पिछले जन्मों के संस्कारों से, ग्रह की स्थिति से, अच्छे माता-पिता के संस्कारों से, अच्छे गुरु के सान्निध्य से प्रभु दर्शन की कामना जाग्रत होती है। जिसको प्रभु के दर्शन हो जाते हैं उनके तन, मन, धन के रोग स्वतः ही समाप्त हो जाते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि मेरे कई प्रकार के भक्त हैं लेकिन ‘ज्ञानी’ को सर्वश्रेष्ठ कहा गया है। जो मनुष्य सारे कर्म मेरे लिए, मेरे दर्शन पाने के लिए कर रहा है उसके सारे काम स्वतः ही पूरे हो जाते हैं। उन्हें इस संसार में किसी प्रकार की कमी नहीं रहती। ऐसे-ऐसे मंत्र हैं, ऐसी प्रार्थना है जिनका हृद शुद्ध है और जिनके हृदय से स्वतः ही प्रार्थना निकलती है प्रभु उन्हें अवश्य ही दर्शन देते हैं। लेकिन शास्त्रोक्त नियम भी हैं, शास्त्रोक्त फल भी हैं, ऐसे अनंत लोग जो पर्वतों, गुफाओं व इस जगत में भी साधारण रूप से विचरते हैं जिन्हें भ जगदम्बा के, भगवान श्रीकृष्ण के, भगवान श्रीराम, सद्गुरु नानक के साक्षात दर्शन हो चुके हैं। अगर उस नियम को अपनाएं और उस मंत्र को सम्पुटित कर सुबह-शाम प्रार्थना करें और शतचण्डी का पाठ करें तो मां दुर्गा के अवश्य दर्शन हो जायेंगे। इसके प्रमाण है पथिक बाबा के शिष्य विशुद्धानन्द जी ऐसे संत जगत में आज भी हैं जिन्हें मां जगदम्बा के भगवान श्रीकृष्ण के, भगवान श्रीराम के साक्षात दर्शन हो चुके हैं और वे जब चाहें बात कर सकते हैं। उनके आदेश से वे चलते हैं, जगत में विचरते हैं, प्रार्थना करते हैं तथा लोगों के कष्ट हरते हैं।
जब आदमी निष्काम हो जाता है तो फिर ये संत अपनी कृपा से उसे वीजमंत्र देते हैं। बीजमंत्र के द्वारा यह सम्पुटित पाठ करके, जो इसका विधिपूर्व परायण करते हैं, उन्हें मां जगदम्बा ऐसे दर्शन देती हैं जैसे हम तुम आमने-सामने बैठे हैं। इस पृथ्वी पर जो भी चल रहा है वह मां जगदम्बा की कृपा से ही चल रहा है। मां जगदम्बा की कृपा से इस जगत में जो चाहे कर सकते हैं। किसी भी रोग का निवारण कर सकते हैं। किसी भी अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं। किसी भी सिद्धि को प्राप्त कर सकते हैं। इस जगत से परे जो अनंत अनंत लोक हैं, उनकी भी वे यात्रा कर सकते हैं या जो भी उनकी मनोकामना हो वह मां जगदम्बा की कृपा से पूर्ण कर सकते हैं।
वे सभी जिज्ञासु जो मां जगदम्बा के दर्शन के प्रार्थी हैं वे इस मंत्र को जिन-जिन गुरुओं को मां जगदम्बा के दर्शन हो चुके हैं, उनसे बीजमंत्र लेकर इस मंत्र का उपयोग करें।
मंत्र: विधेहि देवि कल्याणं विधेहि परमां श्रियम् ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥
जो इस मंत्र का विधिपूर्वक सम्पुटित पाठ करके दुर्गा सप्तशती का शतचण्डी पाठ कराते हैं तो मां जगदम्बा उसे अवश्य दर्शन देती हैं। ऐसा ऋषि-मुनियों द्वारा, शास्त्रों द्वारा प्रत्यक्ष जाना गया है, अनुभव किया गया है।
गुरुदास : परम पूज्य गुरुदेव, हमारे देवताओं की मूर्तियां क्या वास्तविक हैं या मन की भावना को साकार किया गया है, अनुभव किया गया है ?
परम पूज्य गुरुदेव : यह प्रश्न आज के युवा वर्ग के लिए और आधुनिक समाज के लिए परम कल्याणकारी है। आजकल हमारी संस्कृति पश्चिमी देशों से प्रभावित है। इस जगत में सबसे कठिन कार्य प्रभु की भक्ति करना है। अगर आप किसी युवा वर्ग को कह दें कि फलां जगह धन है या यह कार्य करने से धन मिलेगा या अमेरिका, कनाडा चलना है या फलां जगह चलने से बड़ा लाभ होगा हो ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है जो उसकी तरफ आकर्षित न हो। सौ में से कोई एक व्यक्ति होगा जो प्रभु की भक्ति की तरफ आकर्षित होगा। अगर कोई विद्यार्थी संस्कृत का ज्ञान आध्यात्म विषय का ज्ञान करके उसमें दक्षता प्राप्त कर से तो इस जगत में जो चाहे प्राप्त कर सकता है। जिसे अनंत अनंत विषयों का ज्ञान करके आधुनिक युग में नहीं प्राप्त कर सकता। आज का युवा वर्ग हालांकि रूप से सुन्दर है, शरीर सुन्दर है, धन की कमी भी नहीं है, मन से भी सबल है लेकिन जितना वह विकार ग्रस्त हो रहा है उसका कारण प्रभु की भक्ति का न होना है। आध्यात्मिक विषयों की कमी होना है। क्योंकि इन विषयों को पढ़ाया नहीं जाता। विदेशों में कहीं आध्यात्म नहीं मिलेगा। हमारी शिक्षा विदेशी संस्कृति पर आधारित है। हमारे देश में जो उच्च कोटि के विषय हैं उनका लोप हो चुका है। जितने भी व्यक्ति हैं वे सरल चीज को पाने के लिए आकर्षित होते हैं। क्योंकि वह सहजता से मिल जाती है। प्रभु की भक्ति इतनी कठिन है कि हमें बार-बार प्रार्थना करने पर मिलती है। अगर किसी के पास इस जगत की सारी चीजें हैं और उसे आप कहें कि सुबह, शाम दो घंटे प्रभु का सिमरण करे या भक्ति करे तो उसके लिए यह बड़ा दुर्लभ होगा। उसके पूरे शरीर का रोम-रोम कांपने लगेगा. उसका मन उससे विद्रोह करने लगेगा, उसका तन उससे बगावत करने लगेगा। उसे लगेगा कि जैसे उसकी शक्ति की छिन्न हो गई है। वह कमजोर हो गया है।
आप यह जानकर हैरान हो जाएंगे कि कोई बूढ़ा आदमी, कोई निर्बल आदमी भक्ति भी नहीं कर सकता। अगर कोई व्यक्ति बचपन में, जवानी में भक्ति की तरफ आकर्षित नहीं हुआ तो बुढ़ापे में भी वह भक्ति नहीं कर सकता। उसने जवानी में जो कार्य किया है बुढ़ापे में भी वही कार्य करेगा। और मृत्यु के समय भी उसके दिमाग में वही धन घूमेगा, स्त्री घमेगी।
हमारे देश में ऐसे राजनयिक, नेता हुए हैं जो बड़े-बड़े विद्वान थे, जैसे उनका अन्त हुआ तो वह बहुत पीड़ादायक था। उनके मुंह से अन्त समय में राम का नाम भी नहीं निकला। हालांकि वे बड़े शक्तिशाली थे। साधन संपन्न थे।
यह करोड़ों में से एक महात्मा गांधी की तरह होते हैं जिनके अंत समय में भी मुंह से ‘हे राम’ निकलता है। यह असाधारण प्रतिभा का प्रतीक है। अगर युवा वर्ग इस चीज को मान जाएगा, भक्ति को मान जायेगा तो उसका जीवन बदल जायेगा। यह जानने के लिए भी बड़ी शक्ति की जरूरत है। वह इसलिए नहीं। मानता कि मानने से अहंकार टूटता है, लोभ टूटता है, उनका मन टूटता है, विकार टूटता है।
भक्ति एक प्रकाश है यह अंधकार के मिटने का नाम है। जब हमारे पांच विकारों का लोप हो जाता है तभी भक्ति का आगमन होता है। इसलिए जो युवा वर्ग है वह सहज चीजों की तरफ आकर्षित होता है। काम की तरफ आकर्षित होता है जिसका अंत दुखदायी है। जैसे गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव है उसी तरह काम नीचे को गिराता है। नीचे गिरने के लिए कुछ करने की आवश्यकता नहीं होती। आदमी स्वयं नीचे गिर जाता है। ऐसा आदमी का स्वभाव है। लेकिन भक्ति ऊर्जा को उर्द्धगमन की तरफ ले जाती है। यह ऊंची तरफ ले जाती है। यह विकास है। यह चेतना का मूलाधार है। इसके लिए प्रभु की कृपा, गुरू का बीजमंत्र और माता-पिता के संस्कार चाहिए। बच्चे का अपना तप चाहिए। जो आध्यात्म का ज्ञान प्राप्त कर लेता है उसे और कुछ पाने को बाकी नहीं रह जाता। जैसे श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि जो मुझे प्राप्त कर लेता है उसे इस जगत में कुछ भगवान भी जानना शेष नहीं रह जाता। ऐसे उपनिषदों में भी कहा गया है, मुनियों ने कहा है लेकिन इसकी तरफ आकर्षित होना बड़ा कठिन है। यह बड़ा सरल भी है।
ये जो मूर्तियां हैं, भगवान शिव, भगवान राम, भगवान श्रीकृष्ण, मां दुर्गा 7 आदि देवी-देवताओं की, इनकी वास्तविकता है, यह हमारे मन की भावना भी है। जब मूर्तियों का निर्माण हुआ, जब ऋषि-मुनियों ने तपस्या की, साधना की तब उन्होंने इन मूर्तियों को जाना। मूर्ति बनाने के बाद आज हम मूर्तियों को देखकर फिर उसकी पूजा करते हैं। लेकिन जिन्होंने मूर्तियों को बनाया। वे साधना में गये, उन्होंने साधना में इन भगवान की मूर्तियों के ऐसे दिव्य विभूतियों के साक्षात दर्शन किये और दर्शन करने के बाद उन्होंने मूर्तियों का निर्माण किया। आज भी जो तपस्वी लोग तपस्या करते हैं उनको जैसे यह मूर्ति है उसी रूप में दर्शन प्राप्त होते हैं। यह मूर्ति काल्पनिक नहीं है। इसका निर्माण कल्पना से नहीं किया गया है। जब कोई साधना में जाता है तो उसे दिव्य प्रकाश के बाद उसका पूरा शरीर कांपने लगता है। यह दिव्य प्रकाश साधना द्वारा साधक के शरीर में प्रवेश करता है तो उसके तेज को शरीर सहन नहीं कर पाता। जैसे गीता में अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से कह रहे हैं कि प्रभु आपका जो दिव्य रूप है में इस आपके रूप को सहन नहीं कर पा रहा हूं। आपके प्रकाश के आगे हजारों सूर्य भी कुछ नहीं है, आपका जो अलौकिक रूप है इससे मेरा शरीर कांप रहा है। जब भी कोई साधक अपने किसी इष्ट की साधना करता है, उसे प्रथम बार देखता है तो ईष्ट भी यह देखता है कि यह साधक मेरे दर्शन के योग्य है भी या नहीं। क्या यह मेरे दर्शन को संभाल सकता है? जैसे सौ पावर का बल्ब हजार पावर के बल्ब को संभाल नहीं सकता इसी तरह हमारा शरीर है।
मूर्तियों का रहस्य कोई तत्ववेत्ता संत से ही प्राप्त किया जा सकता है। वास्तव में ये मूर्तियां किसी की कल्पना नहीं हैं, लेकिन इसका ज्ञान केवल साधक को ही होता है। जिस तरह अन्धे को रंगों का पता नहीं होता वह कल्पना से कह सकता है कि यह अमुक रंग है, लेकिन जिसकी आंखें होती हैं यह कल्पना नहीं मानता वह साक्षात देखता है। जिस साधक के दिव्य चक्षु खुल जाते हैं उन्हें ये मूर्तियां नहीं नजर आती। उन्हें साक्षात प्रभु राम, कृष्ण, मां अम्बे, भगवान शिव, ब्रह्मा, भगवान गणपति नजर आते हैं, ऐसा ऋषि-मुनियों द्वारा देखा गया है।
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